सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को मतदाता सूची के स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (SIR) को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विस्तृत सुनवाई हुई, जहां वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंहवी और कपिल सिब्बल ने चुनाव आयोग पर अपने संवैधानिक अधिकारों से आगे बढ़ने और मतदाताओं पर “अनुचित बोझ” डालने का आरोप लगाया।
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ यह जांच रही है कि क्या EC का यह कदम वास्तव में ऐसी विधायी गतिविधि है, जो केवल संसद और राज्य विधानमंडलों के लिए आरक्षित है।
सिंहवी ने शुरुआत में कहा कि आयोग चुनाव कराने के नाम पर ऐसे कदम उठा रहा है, जो पूरी तरह विधायी प्रकृति के हैं।
उन्होंने दलील दी कि संविधान का अनुच्छेद 324 (चुनावों का पर्यवेक्षण) अनुच्छेद 327 के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जो चुनाव संबंधी कानून बनाने का अधिकार संसद को देता है।
सिंहवी ने कहा:
“चुनाव आयोग विधायी काम नहीं कर सकता। वह किसी भी मानक पर संविधान की व्यवस्थाओं के भीतर ‘तीसरा सदन’ नहीं है। केवल संविधानिक निकाय होना उसे असीमित और पूर्ण विधायी शक्ति नहीं देता।”
उन्होंने जून 2025 में जारी उस फॉर्म पर एतराज जताया जिसमें 11–12 दस्तावेजों की मांग की गई है।
“यह नियमों में कहां है? ऐसा फॉर्म केवल अधीनस्थ विधायन से ही आ सकता है,” उन्होंने कहा।
सिंहवी ने SIR को “massification en masse exercise” बताते हुए कहा कि यह नागरिकता की व्यापक जांच जैसा है, जबकि EC के पास इस तरह का अधिकार नहीं है।
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने भी SIR के दायरे पर सवाल उठाते हुए कहा कि बूथ लेवल ऑफिसरों (BLO) को ऐसे अधिकार देना संवैधानिक रूप से असंगत है।
सिब्बल ने कहा:
“क्या एक स्कूल टीचर, जो BLO है, तय करेगा कि कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक है या मानसिक रूप से अस्वस्थ? यह खतरनाक और अविवेकपूर्ण है।”
उन्होंने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), धारा 16 का हवाला दिया, जिसके तहत पात्रता या अयोग्यता तय करने का काम गृह मंत्रालय या सक्षम न्यायालय का होता है।
सिब्बल ने जोड़ा कि SIR के नियम विदेशी अधिनियम जैसे लगते हैं, जहां नागरिकता साबित करने का भार व्यक्ति पर डाल दिया जाता है।
उन्होंने पूछा:
“अगर मेरे पिता ने 2003 में वोट नहीं किया, या उससे पहले उनकी मृत्यु हो गई, तो मैं यह बोझ कैसे उठाऊंगा?”
सिब्बल के उदाहरण पर CJI सूर्यकांत ने टिप्पणी की:
“अगर आपके पिता का नाम सूची में नहीं था और आपने भी ध्यान नहीं दिया, तो शायद आप बस छूट गए। फर्क सिर्फ इतना है कि 2003 की सूची में माता–पिता का नाम है या नहीं…”
जब सिंहवी ने EC की कार्रवाई को “illusion of grandeur” कहा, तो पीठ ने कहा कि यदि ऐसा माना जाए तो “EC कभी यह प्रक्रिया कर ही नहीं सकेगा” और यह भी कहा कि SIR “रोज़मर्रा का अपडेट नहीं है।”
बुधवार को हुई सुनवाई में पीठ ने कहा था कि यह दलील पर्याप्त नहीं है कि देश में पहले कभी SIR नहीं हुआ।
कोर्ट ने कहा कि चुनाव आयोग के पास Form 6 में दर्ज प्रविष्टियों की शुद्धता जांचने की अंतर्निहित शक्ति है।
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि आधार कार्ड नागरिकता का पूर्ण प्रमाण नहीं है, इसलिए इसे केवल उपलब्ध दस्तावेजों की सूची में शामिल किया गया है। किसी भी मतदाता का नाम हटाने से पहले नोटिस देना अनिवार्य है।
अदालत अब 2 दिसंबर को सुनवाई जारी रखेगी, जब EC के अधिकारों और सीमाओं पर आगे की बहस होगी।




