सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक विवाह को भंग कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि जिस शादी का कोई अस्तित्व नहीं बचा है, उसमें पक्षों को जबरन बांधे रखना किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता। जस्टिस मनमोहन और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए तलाक की डिक्री को बहाल किया और टिप्पणी की कि “सुलह की किसी भी उम्मीद के बिना लंबे समय तक अलग रहना दोनों पक्षों के लिए क्रूरता के समान है।”
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपील गुवाहाटी हाईकोर्ट (शिलांग बेंच) के 13 अप्रैल 2011 के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। हाईकोर्ट ने अतिरिक्त उपायुक्त (न्यायिक), शिलांग द्वारा 9 मार्च 2010 को दिए गए तलाक के आदेश को रद्द कर दिया था।
पक्षकारों का विवाह 4 अगस्त 2000 को शिलांग में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। पति और पत्नी दोनों भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) में डेवलपमेंट ऑफिसर के रूप में कार्यरत थे। प्रतिवादी-पत्नी का आरोप था कि शादी से पहले उनकी नौकरी की प्रकृति जानने के बावजूद, अपीलकर्ता-पति और उनके परिवार ने उन पर नौकरी छोड़ने का दबाव बनाया। उन्होंने आरोप लगाया कि ससुराल में दुर्व्यवहार के कारण उन्हें 2001 में वैवाहिक घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।
पति ने 2003 में तलाक के लिए मुकदमा दायर किया, जिसे 2006 में समय से पहले मानते हुए खारिज कर दिया गया। इसके बाद, 29 नवंबर 2007 को पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-a) और (i-b) के तहत परित्याग (desertion) का आरोप लगाते हुए नया मुकदमा दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने 2010 में यह मानते हुए विवाह भंग कर दिया कि पति परित्याग के आधार को साबित करने में सफल रहा। हालांकि, 2011 में हाईकोर्ट ने इस फैसले को यह कहते हुए पलट दिया कि पत्नी का इरादा पति को स्थायी रूप से छोड़ने का नहीं था और पति ने सुलह के पर्याप्त प्रयास नहीं किए थे।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता-पति के वकील ने तर्क दिया कि पक्षकार 29 नवंबर 2001 से अलग रह रहे हैं और सुलह की कोई संभावना नहीं है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एक ही शाखा में काम करने के बावजूद दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती है। उनका कहना था कि शादी पूरी तरह से टूट चुकी है (irretrievable breakdown)। यह भी दलील दी गई कि पति द्वारा 2002 में घर लौटने के अनुरोध वाले पत्रों का पत्नी ने कोई जवाब नहीं दिया।
दूसरी ओर, प्रतिवादी-पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि उन्होंने पति को छोड़ने के इरादे से घर नहीं छोड़ा था, बल्कि उन्हें “लगातार दुर्व्यवहार और अपमान” के कारण घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। उन्होंने तर्क दिया कि 2003 में तलाक के लिए पति की जल्दबाजी यह दर्शाती है कि वह रिश्ते को खत्म करना चाहते थे। सुप्रीम कोर्ट के सावित्री पांडे बनाम प्रेम चंद्र पांडे (2002) के फैसले का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा कि केवल इस आधार पर शादी को भंग नहीं किया जा सकता कि वह टूट चुकी है। उन्होंने कहा कि पत्नी अब भी शादी को मानती है और वैवाहिक जीवन फिर से शुरू करने को तैयार है।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया कि शादी के दो साल के भीतर ही कानूनी लड़ाई शुरू हो गई थी और यह पिछले 22 वर्षों से लंबित है। पक्षकार 24 वर्षों से अलग रह रहे हैं और उनकी कोई संतान नहीं है। कोर्ट ने देखा कि 2012 में मध्यस्थता (mediation) के प्रयास सहित तमाम कोशिशों के बावजूद कोई सुलह नहीं हो सकी।
पीठ ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा:
“कई मामलों में, इस कोर्ट ने ऐसी स्थितियों को देखा है जहां पक्षकार काफी लंबे समय से अलग रह रहे हैं और यह लगातार माना गया है कि सुलह की किसी भी उम्मीद के बिना लंबे समय तक अलग रहना दोनों पक्षों के लिए क्रूरता है।”
राकेश रमन बनाम कविता (2023) के फैसले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने कहा कि जहां पक्षकार अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा अलग रह चुके हों, वहां शादी केवल कागजों पर रह जाती है।
पक्षकारों के आचरण पर कोर्ट ने कहा:
“मौजूदा मामले में, जीवनसाथियों के वैवाहिक जीवन के प्रति दृष्टिकोण को लेकर अपने-अपने दृढ़ विचार हैं और उन्होंने लंबे समय तक एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाने से इनकार कर दिया है। नतीजतन, उनका आचरण एक-दूसरे के प्रति क्रूरता के समान है। इस कोर्ट का मानना है कि दो व्यक्तियों से जुड़े वैवाहिक मामलों में, यह तय करना समाज या कोर्ट का काम नहीं है कि किस जीवनसाथी का दृष्टिकोण सही है या नहीं। यह उनके दृढ़ विचार और एक-दूसरे को स्वीकार करने से इनकार करना ही है जो एक-दूसरे के लिए क्रूरता बन जाता है।”
संविधान पीठ के शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) के फैसले का उल्लेख करते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि अनुच्छेद 142(1) के तहत “पूर्ण न्याय” करने की उसकी शक्ति ‘दोष और आरोप’ (fault and blame) के सिद्धांत से बंधी नहीं है। कोर्ट ने कहा कि जब शादी वास्तव में समाप्त हो चुकी हो, तो पक्षकारों को हमेशा के लिए उससे बांधे रखने का कोई मतलब नहीं है।
विवाह की पवित्रता पर पीठ ने कहा:
“यह कोर्ट इस विचार के प्रति सचेत है कि न्यायालयों का दृष्टिकोण विवाह की पवित्रता को बनाए रखने का होना चाहिए और केवल एक पक्ष के कहने पर विवाह को भंग करने में संकोच करना चाहिए। लेकिन, वर्तमान मामले में, पक्षकार बहुत लंबे समय से अलग रह रहे हैं और विवाह में कोई पवित्रता नहीं बची है। साथ ही, अब मेल-मिलाप की कोई संभावना नहीं है।”
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि पक्षकारों के बीच विवाह पूरी तरह से और असाध्य रूप से टूट चुका है। कोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक वैवाहिक मुकदमेबाजी का लंबित रहना केवल कागजों पर शादी को जीवित रखता है।
पीठ ने आदेश दिया:
“परिणामस्वरूप, इस कोर्ट का विचार है कि पक्षकारों के बीच विवाह पूरी तरह से टूट चुका है और इसलिए, भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए, कोर्ट पक्षकारों के बीच विवाह को भंग करता है।”
अपील को स्वीकार करते हुए, कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और अतिरिक्त उपायुक्त (न्यायिक), शिलांग द्वारा दी गई तलाक की डिक्री को बहाल कर दिया।
केस डीटेल्स:
- केस टाइटल: नयन भौमिक बनाम अपर्णा चक्रवर्ती
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 5167/2012
- साइटेशन: 2025 INSC 1436
- कोरम: जस्टिस मनमोहन और जस्टिस जॉयमाल्या बागची

