भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मरिप्पन एवं अन्य बनाम पुलिस निरीक्षक एवं अन्य मामले में दो अपीलकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को निरस्त कर दिया। न्यायालय ने कहा कि किसी भी ठोस सबूत के अभाव में उन्हें मुकदमे का सामना करने के लिए मजबूर करना “न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग” होगा। न्यायमूर्ति एहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने स्पष्ट किया कि बिना स्पष्ट साक्ष्य के किसी व्यक्ति को आपराधिक मुकदमे में घसीटना अनुचित है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक महिला की शिकायत से जुड़ा है, जिसमें उसने दावा किया कि वह अपीलकर्ताओं के बेटे के साथ रिश्ते में थी। उसके अनुसार, आरोपी ने उससे विवाह का वादा किया था, जिसके चलते उन्होंने शारीरिक संबंध बनाए। बाद में, जब अपीलकर्ताओं ने अपने बेटे की शादी किसी अन्य महिला से तय कर दी, तो उसने धोखा देने का आरोप लगाया। महिला ने यह भी कहा कि अपीलकर्ताओं ने विवाह को स्वीकार करने का आश्वासन दिया था, जिससे उसे यह विश्वास हुआ कि विवाह निश्चित है।
शिकायत के आधार पर, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 417 (धोखाधड़ी) और धारा 109 (उकसाने) के तहत अपीलकर्ताओं के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया गया। अपीलकर्ताओं ने फौजदारी प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत मद्रास हाईकोर्ट (मदुरै पीठ) में याचिका दायर कर आरोपों को रद्द करने की मांग की, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। इसके बाद, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
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मुख्य कानूनी प्रश्न
- क्या अपीलकर्ताओं (माता-पिता) ने शिकायतकर्ता को किसी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गलत जानकारी दी, जिससे धोखाधड़ी का अपराध सिद्ध हो?
- क्या माता-पिता द्वारा दिए गए कथित आश्वासन को आईपीसी के तहत धोखाधड़ी के लिए उकसाने के रूप में माना जा सकता है?
- क्या ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जिन पर कोई प्रत्यक्ष आरोप नहीं है?
सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन
सर्वोच्च न्यायालय ने शिकायत का विश्लेषण किया और पाया कि अपीलकर्ताओं के खिलाफ कोई ठोस आरोप नहीं है, जिससे यह साबित हो सके कि उन्होंने जानबूझकर गलत जानकारी दी या अपने बेटे को उकसाया। न्यायालय ने कहा:
“शिकायत में लगाए गए आरोपों को देखने के बाद भी, हमें अपीलकर्ताओं के किसी भी ऐसे कार्य का कोई प्रमाण नहीं मिला जो अवैध या आपराधिक प्रकृति का हो। आईपीसी की किसी भी धारा के तहत अपराध के तत्व नहीं पाए जाते हैं।”
इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि 29 वर्षीय महिला, जो एक स्नातकोत्तर पेशेवर थी, स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता रखती थी। तथ्यों से यह साबित नहीं होता कि केवल अपीलकर्ताओं के कथित आश्वासन के कारण ही उसने आरोपी से संबंध बनाए।
सुप्रीम कोर्ट ने विष्णु कुमार शुक्ला बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) 15 SCC 502 का हवाला देते हुए कहा कि जब किसी आरोपी के खिलाफ ठोस संदेह मौजूद नहीं हो, तो अदालतों को ऐसे मामलों को खारिज कर देना चाहिए। अदालत ने कहा:
“इस स्थिति में अपीलकर्ताओं को पूर्ण आपराधिक मुकदमे का सामना करने के लिए मजबूर करना अनुचित होगा। न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि वे दुर्भावनापूर्ण और निराधार आपराधिक मुकदमों से लोगों की रक्षा करें।”
हाईकोर्ट की विवादित टिप्पणी को हटाया गया
न्यायालय ने अपने निर्णय में मद्रास हाईकोर्ट द्वारा की गई एक विवादित टिप्पणी को भी खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था:
“यदि यह याचिका स्वीकार कर ली जाए, तो याचिकाकर्ताओं का बेटा इसी तरह विवाह योग्य महिलाओं को धोखा देता रहेगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ताओं का बेटा हाईकोर्ट के समक्ष पक्षकार नहीं था और उसे अपना बचाव करने का अवसर नहीं मिला। अतः इस टिप्पणी को “अनावश्यक” करार देते हुए, इसे हाईकोर्ट के रिकॉर्ड से हटाने का निर्देश दिया। अदालत ने अनु कुमार बनाम केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन (2021 SCC OnLine SC 3454) मामले का उल्लेख करते हुए इस आदेश को उचित ठहराया।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने P.R.C. No.16/2022 में अपीलकर्ताओं के खिलाफ सभी आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया और उन्हें उनकी जमानत एवं अन्य कानूनी दायित्वों से मुक्त कर दिया। हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस निर्णय का अपीलकर्ताओं के पुत्र के खिलाफ लंबित मामले पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अदालत ने मद्रास हाईकोर्ट (मदुरै पीठ) के न्यायिक रजिस्ट्रार को इस निर्णय की एक प्रति आवश्यक अनुपालन हेतु भेजने का भी निर्देश दिया।