धारा 156(3) CrPC | मजिस्ट्रेट शिकायत जांच के लिए भेज सकते हैं; निषेधाज्ञा का उल्लंघन बाद में रद्द होने पर भी दंडनीय: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने 4 नवंबर, 2025 के एक फैसले में, कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा रद्द की गई एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को बहाल कर दिया है। शीर्ष अदालत ने माना कि न्यायिक मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास (JMFC) द्वारा एक निजी शिकायत के आधार पर दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के तहत जांच का आदेश देना उचित था, क्योंकि न्यायिक कार्यवाही में फर्जी ई-स्टाम्प पेपर के उपयोग के आरोपों की “पूर्ण जांच को सही ठहराने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी।”

यह फैसला जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने शिकायतकर्ता सादिक बी. हंचिनमनी द्वारा दायर आपराधिक अपीलों में सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि

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यह मामला जेएमएफसी-III कोर्ट, बेलगावी के समक्ष दायर एक निजी शिकायत (PCR No.1/2018) से उत्पन्न हुआ, जिसमें भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 120B (आपराधिक साजिश), 201 (सबूत मिटाना), 419 (प्रतिरूपण द्वारा धोखाधड़ी), 471 (जाली दस्तावेज़ को असली के रूप में उपयोग करना), 468 (धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाजी), और 420 (धोखाधड़ी) के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया था।

यह शिकायत एक दीवानी विवाद में निहित थी। अपीलकर्ता ने एक मुकदमा (O.S. No.43/2009) दायर कर अपने पिता से मौखिक उपहार के आधार पर एक वाद संपत्ति के स्वामित्व की घोषणा करने और अपने पिता द्वारा आरोपी नंबर 1 (वीना) के पक्ष में निष्पादित 03.02.2009 की बिक्री विलेख (Sale Deed) को अवैध और शून्य घोषित करने की मांग की थी। यह मुकदमा 28.03.2013 को खारिज कर दिया गया था।

अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष एक अपील (R.F.A. No.4095/2013) दायर की। 03.06.2013 को, हाईकोर्ट ने वाद संपत्ति के शीर्षक और कब्जे के संबंध में यथास्थिति (status quo) बनाए रखने का एक अंतरिम आदेश पारित किया।

अपील लंबित रहने के दौरान, अपीलकर्ता ने आरोप लगाया कि 18.06.2015 और 18.10.2015 को, आरोपी नंबर 1 और 2 ने अन्य लोगों के साथ मिलकर ताला तोड़ा, अतिक्रमण किया और यथास्थिति आदेश का उल्लंघन करते हुए संपत्ति में मरम्मत का काम शुरू कर दिया। इसके बाद अपीलकर्ता ने अवमानना कार्यवाही शुरू करने के लिए एक आवेदन (I.A.No.1/2015) दायर किया।

इस अवमानना आवेदन के जवाब में, आरोपी नंबर 1 ने 20.05.2013 (यथास्थिति आदेश से पहले) की तारीख वाले ई-स्टाम्प पेपर पर एक “किराया समझौता” (Rent Agreement) नामक दस्तावेज़ पेश किया, जिसे कथित तौर पर आरोपी नंबर 1 द्वारा आरोपी नंबर 2 के पक्ष में निष्पादित किया गया था।

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अपीलकर्ता ने आरोप लगाया कि यह किराया समझौता मनगढ़ंत था। महानिरीक्षक, पंजीकरण और स्टाम्प आयुक्त से सत्यापन करने पर, अपीलकर्ता ने दावा किया कि ई-स्टाम्प पेपर नकली था, क्योंकि उसी सीरियल नंबर वाले स्टाम्प पेपर की एक प्रमाणित प्रति से पता चला कि इसका इस्तेमाल किसी अन्य लेनदेन के लिए किया गया था।

इसके बाद, अपीलकर्ता ने निजी शिकायत दर्ज की। जेएमएफसी ने 18.01.2018 के आदेश द्वारा, मामले को संहिता की धारा 156(3) के तहत जांच के लिए संदर्भित कर दिया। नतीजतन, खाड़े बाजार पुलिस स्टेशन में FIR क्राइम नंबर 12/2018 दर्ज की गई।

आरोपी-निजी प्रतिवादियों ने बाद में कर्नाटक हाईकोर्ट, धारवाड़ बेंच के समक्ष संहिता की धारा 482 के तहत याचिकाएं दायर कीं। हाईकोर्ट ने दो अलग-अलग आदेशों (दिनांक 24.07.2019 और 18.11.2021) के माध्यम से याचिकाओं को अनुमति दी और आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। इन रद्दीकरण आदेशों को शिकायतकर्ता द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें

अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि ई-स्टाम्प पेपर नकली था, इस तथ्य की पुष्टि पंजीकरण महानिरीक्षक की एक रिपोर्ट से हुई थी। यह दलील दी गई कि आरोपियों ने मिलीभगत कर “दस्तावेज़ को गढ़ा, जाली बनाया, मनगढ़ंत और निर्मित किया” (पैरा 17) ताकि हाईकोर्ट को गुमराह किया जा सके और कब्जा हासिल किया जा सके। अपीलकर्ता ने प्रस्तुत किया कि हाईकोर्ट ने “प्रारंभिक चरण” (nascent stage) (पैरा 23) में FIR को रद्द करने में त्रुटि की और नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर प्रा. लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2021) 19 SCC 401 में निर्धारित सिद्धांतों की अनदेखी की।

कर्नाटक राज्य के वकील ने प्रस्तुत किया कि हाईकोर्ट ने सभी आरोपियों को समानता (parity) देने में त्रुटि की, क्योंकि आरोप अलग-अलग थे। यह भी तर्क दिया गया कि जेएमएफसी का जांच के लिए मामला भेजने का आदेश, भले ही अनियमित हो, संहिता की धारा 460 के तहत एक “उपचार योग्य दोष” (curable defect) (पैरा 28) था और इससे कार्यवाही दूषित नहीं होती।

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निजी प्रतिवादियों ने हाईकोर्ट के आदेशों का समर्थन करते हुए कहा कि अपीलकर्ता का “गुप्त मकसद” (ulterior motive) (पैरा 32) था और संपत्ति से संबंधित मुख्य दीवानी अपील (RFA) का फैसला अंततः उनके पक्ष में हुआ था।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने अपने विश्लेषण में, किराया समझौते को “मौजूदा मामलों में निर्णायक मोड़” (turning point) (पैरा 35) के रूप में पहचाना। कोर्ट ने आरोपी नंबर 1 द्वारा पेश किए गए विशिष्ट ई-स्टाम्प पेपर (नंबर IN-KA82473995873571L दिनांक 20.05.2013) पर ध्यान दिया।

फैसले में कहा गया है: “अपीलकर्ता द्वारा महानिरीक्षक, पंजीकरण से सत्यापन करने पर… यह दस्तावेज़… पता चलता है कि उक्त ई-स्टाम्प पेपर नंबर उसी पंजीकरण तिथि के साथ एक जे.डी. दुरादुंडी और एक एस.बी. जनगौड़ा के बीच एक बिक्री समझौते (Sale Agreement) से संबंधित था।” (पैरा 35)।

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला: “इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि हाईकोर्ट के समक्ष पेश किया गया किराया समझौता… उस ई-स्टाम्प पेपर पर दिखाया गया था जिसका उपयोग उपरोक्त व्यक्तियों द्वारा एक बिक्री समझौते के लिए किया गया था, जो आरोपी नंबर 1 और 2 या किसी किराया समझौते से असंबद्ध था।” (पैरा 35)।

फैसले में समी खान बनाम बिंदू खान, (1998) 7 SCC 59 का हवाला देते हुए यह भी कहा गया कि, “भले ही एक निषेधाज्ञा (injunction) आदेश को बाद में रद्द कर दिया जाए, फिर भी उल्लंघन/उल्लंघन के परिणाम… जब वह लागू था, उल्लंघनकर्ता पर पड़ सकते हैं” (पैरा 36)।

प्रथम दृष्टया जालसाजी के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि जेएमएफसी के 18.01.2018 के आदेश को “गलत नहीं ठहराया जा सकता” (cannot be faulted) (पैरा 38)। पीठ ने टिप्पणी की: “पुलिस द्वारा पूर्ण जांच को सही ठहराने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। हमारे विचार में, जेएमएफसी ने मामले को जांच के लिए पुलिस को सही संदर्भित किया था क्योंकि आरोपियों के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता था…” (पैरा 38)।

सुप्रीम कोर्ट ने FIR को रद्द करने के हाईकोर्ट के तर्क को भी संबोधित किया, विशेष रूप से पहले आदेश में यह निष्कर्ष कि जेएमएफसी ने “आगे की जांच” (further investigation) शब्द का उपयोग करके त्रुटि की। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट ” ‘आगे’ (further) शब्द के उपयोग से अनुचित रूप से प्रभावित” (unduly swayed) (पैरा 39) हुआ।

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जेएमएफसी के वास्तविक आदेश का हवाला देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया: “उपरोक्त उद्धरण से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है कि जेएमएफसी ने मामले को संहिता की धारा 156(3) के तहत पुलिस को संदर्भित किया था, और ‘आगे’ (further) का उपयोग संहिता की धारा 173(8) के संदर्भ में नहीं था, जो एक सूक्ष्म भेद है जिसे पहले आदेश ने नजरअंदाज कर दिया।” (पैरा 40)।

नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर (उपरोक्त) पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि जब एक FIR में आरोप एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करते हैं, तो हाईकोर्ट को “जांच एजेंसी/पुलिस को FIR में लगे आरोपों की जांच करने की अनुमति देनी होगी।” (पैरा 42)।

निर्णय

अपना विश्लेषण समाप्त करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने माना: “इस प्रकार, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों, रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री और पक्षकारों के वकीलों द्वारा दी गई दलीलों पर समग्र रूप से विचार करने के बाद, दिनांक 24.07.2019 और 18.11.2021 के पहले और दूसरे आदेशों को रद्द किया जाता है।” (पैरा 43)।

अपीलों को अनुमति दी गई, और FIR क्राइम नंबर 12 of 2018, खाड़े बाजार पुलिस स्टेशन, को बहाल कर दिया गया। पुलिस को “कानून के अनुसार मामले की शीघ्रता से जांच करने” (investigate the case expeditiously in accordance with law) (पैरा 43) का निर्देश दिया गया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसकी टिप्पणियां केवल मौजूदा मुद्दे पर विचार करने के उद्देश्य से हैं और किसी भी लंबित कार्यवाही में पक्षकारों के लिए पूर्वाग्रह पैदा नहीं करेंगी।

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