भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि यदि कोई सरकारी कर्मचारी किसी आपराधिक मामले में बरी हो जाता है, तो भी उसके खिलाफ विभागीय जांच शुरू की जा सकती है या जारी रखी जा सकती है। न्यायालय ने कहा कि विभागीय कार्रवाई और आपराधिक मुकदमे अलग-अलग प्रक्रिया हैं, क्योंकि विभागीय जांच में साक्ष्यों की कसौटी आपराधिक मामलों की तुलना में कम कठोर होती है।
यह फैसला “एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया बनाम प्रदीप कुमार बनर्जी” (सिविल अपील संख्या 8414/2017) मामले में आया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने एक इंजीनियर को रिश्वत के आरोप में नौकरी से बर्खास्त करने के फैसले को बरकरार रखा, भले ही वह आपराधिक मामले में बरी हो चुका था। इस निर्णय से यह स्पष्ट हुआ कि लोक सेवकों को उच्चतम ईमानदारी और जवाबदेही के मानकों का पालन करना होगा, भले ही उन्हें किसी आपराधिक अदालत से राहत मिली हो।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला तब शुरू हुआ जब प्रदीप कुमार बनर्जी, जो एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (AAI) में सहायक अभियंता (सिविल) के रूप में कार्यरत थे, को रिश्वत के आरोप में गिरफ्तार किया गया।
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सीबीआई (CBI) ने उन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत अवैध धन मांगने और स्वीकार करने का आरोप लगाया था।
- विशेष न्यायाधीश, सीबीआई कोर्ट, अलीपुर ने बनर्जी को दोषी ठहराया, जिसके बाद उन्हें बिना विभागीय जांच के सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।
- हालांकि, कलकत्ता हाईकोर्ट ने बाद में उन्हें “संदेह का लाभ” (Benefit of Doubt) देते हुए आपराधिक मामले में बरी कर दिया, लेकिन उन्हें पूर्ण निर्दोष घोषित नहीं किया गया।
- इसके बावजूद, AAI ने उनके खिलाफ नई विभागीय जांच शुरू की, यह तर्क देते हुए कि आपराधिक मुकदमे की कठोर प्रमाणिकता की कसौटी विभागीय जांच पर लागू नहीं होती।
- विभागीय जांच में उन्हें कदाचार का दोषी पाया गया और उनकी बर्खास्तगी बरकरार रखी गई।
- इस निर्णय को कलकत्ता हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने सही ठहराया, लेकिन डिवीजन बेंच ने इसे पलट दिया, जिसके बाद AAI ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
मुख्य कानूनी मुद्दे
- क्या किसी सरकारी कर्मचारी को आपराधिक मामले में बरी होने के बाद भी विभागीय कार्रवाई की जा सकती है?
- क्या विभागीय जांच में साक्ष्यों की कसौटी आपराधिक मुकदमे से अलग होती है?
- क्या विभागीय प्राधिकरण उन साक्ष्यों पर भरोसा कर सकता है, जिन्हें आपराधिक अदालत ने अस्वीकार कर दिया हो?
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति जे.के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने AAI के पक्ष में फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि किसी सरकारी कर्मचारी का आपराधिक मुकदमे में बरी हो जाना उसे विभागीय जांच से नहीं बचा सकता।
कोर्ट ने कहा:
“विभागीय जांच, आपराधिक मुकदमे की तरह नहीं होती। इसमें प्रमाणिकता की कसौटी ‘संभावनाओं की प्रबलता’ (Preponderance of Probabilities) पर आधारित होती है, जबकि आपराधिक मामलों में दोष सिद्ध करने के लिए ‘संदेह से परे’ (Beyond Reasonable Doubt) प्रमाण की आवश्यकता होती है।”
महत्वपूर्ण निष्कर्ष
- विभागीय जांच स्वतंत्र प्रक्रिया है
- कोर्ट ने दोहराया कि आपराधिक मुकदमे और विभागीय कार्रवाई की प्रकृति अलग होती है।
- आपराधिक मुकदमे में कठोर प्रमाणों की आवश्यकता होती है, जबकि विभागीय जांच में साक्ष्य की सामान्य संभाव्यता ही पर्याप्त होती है।
- अपराध अदालत में सिद्ध न होने का मतलब निर्दोषता नहीं
- यदि किसी कर्मचारी को संदेह का लाभ देकर बरी किया जाता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह निर्दोष है।
- विभागीय जांच में अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर उसे दोषी पाया जा सकता है।
- विभागीय प्राधिकरण अपराध में अस्वीकार किए गए साक्ष्यों का उपयोग कर सकता है
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आपराधिक अदालत द्वारा अस्वीकृत साक्ष्यों को विभागीय जांच में स्वीकार किया जा सकता है।
- यदि कोई गवाह आपराधिक मुकदमे में उपस्थित नहीं होता है, तब भी अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य विभागीय कार्यवाही में मान्य माने जा सकते हैं।
महत्वपूर्ण तर्क
- AAI के वकील, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज ने दलील दी कि बनर्जी की बरी होना “सम्मानजनक बरी” (Honourable Acquittal) नहीं थी, बल्कि केवल सबूतों की कमी के कारण हुई थी।
- सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को स्वीकार करते हुए कहा कि विभागीय प्राधिकारी को आपराधिक अदालत के फैसले से बंधा नहीं माना जा सकता।
- कोर्ट ने पाया कि जांच अधिकारी के पास पर्याप्त सबूत थे, जो कर्मचारी के दुराचार को साबित करने के लिए पर्याप्त थे।
- अभियोजन पक्ष के गवाह (Complainant) के न होने के बावजूद, अन्य प्रमाणों के आधार पर विभागीय कार्यवाही सही ठहराई गई।