सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को औपनिवेशिक दौर के आपराधिक मानहानि कानूनों पर बहस को फिर से जीवित कर दिया। अदालत ने कहा कि अब समय आ गया है कि इन प्रावधानों को समाप्त करने पर विचार किया जाए। यह टिप्पणी द वायर समाचार पोर्टल द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान की गई, जिनमें मानहानि मामले में जारी ताज़ा समन को चुनौती दी गई है।
न्यायमूर्ति एम.एम.सुंदरश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने मामले पर नोटिस जारी करते हुए कहा, “मुझे लगता है अब समय आ गया है कि इस सबको डिक्रिमिनलाइज (गैर-आपराधिक) किया जाए।”
यह विवाद 2016 में द वायर में प्रकाशित एक लेख से जुड़ा है, जिसका शीर्षक था “डोज़ियर ने जेएनयू को ‘संगठित सेक्स रैकेट का अड्डा’ बताया; छात्र-प्रोफेसर बोले– नफरत फैलाने की साजिश”। लेख के लेखक अजय अशरफाद महाप्रस्थ ने एक कथित डोज़ियर पर रिपोर्ट की थी। जेएनयू की पूर्व प्रोफेसर अमिता सिंह ने आरोप लगाया कि लेख ने झूठा संकेत दिया मानो वे इस विवादित डोज़ियर की लेखिका हों और छात्रों तथा शिक्षकों के खिलाफ नफरत फैलाने में शामिल रही हों।

शिकायत में कहा गया कि संपादक ने दस्तावेज़ की प्रामाणिकता की जांच किए बिना उसे प्रकाशित किया और इससे प्रोफेसर सिंह की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने के साथ आर्थिक लाभ कमाने की कोशिश की।
यह मुकदमा लगभग एक दशक से विभिन्न अदालतों में चला आ रहा है।
- 2017 में दिल्ली की एक मेट्रोपोलिटन अदालत ने द वायर के सिद्धार्थ भाटिया और अजय अशरफाद महाप्रस्थ को तलब किया था।
- 2023 में दिल्ली हाईकोर्ट ने उस समन को खारिज कर दिया, लेकिन 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश पलटते हुए मामले को पुनर्विचार के लिए वापस भेजा।
- मई 2025 में दिल्ली हाईकोर्ट ने दूसरी बार जारी समन को बरकरार रखा, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने द वायर और इसके ट्रस्ट ‘फाउंडेशन फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिज़्म’ की ओर से दलील दी कि बार-बार जारी किए गए समन अनुचित हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अब इस पर जवाब तलब किया है।
सुप्रीम कोर्ट की मौखिक टिप्पणी से आपराधिक मानहानि कानून पर फिर से बहस तेज हो गई है। आलोचक कहते हैं कि यह प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करता है, जबकि समर्थकों का तर्क है कि व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए यह ज़रूरी है।