सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई निर्णित ऋणी (Judgment Debtor) नीलामी की उद्घोषणा (Proclamation of Sale) तैयार होने से पहले किसी आधार पर आपत्ति उठा सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, तो बाद में वह उन्हीं आधारों पर नीलामी बिक्री को रद्द करने की मांग नहीं कर सकता।
जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस आलोक अराधे की पीठ ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश XXI नियम 90(3) इस प्रकार की देरी से उठाई गई आपत्तियों पर वैधानिक रोक (Statutory Bar) लगाता है।
शीर्ष अदालत ने मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें 2002 में हुई एक नीलामी बिक्री को इस आधार पर अमान्य घोषित कर दिया गया था कि निष्पादन न्यायालय (Executing Court) ने यह जांच नहीं की थी कि क्या संपत्ति का केवल एक हिस्सा बेचने से डिक्री की संतुष्टि हो सकती थी या नहीं।
मामले की पृष्ठभूमि (Case Background)
यह अपील जी.आर. सेलवाराज (मृत) द्वारा कानूनी प्रतिनिधि बनाम के.जे. प्रकाश कुमार और अन्य के मामले में दायर की गई थी।
- मूल विवाद: रशीदा यासीन (डिक्री धारक) ने कोमला अम्मल और के.जे. प्रकाश कुमार के खिलाफ 2,00,000 रुपये के ऋण की वसूली के लिए ओ.एस. संख्या 9158/1995 दायर किया था। इस मामले में 16 अप्रैल, 1997 को एक एक-पक्षीय डिक्री (Ex-parte Decree) पारित की गई, जिसमें 3,75,000 रुपये ब्याज सहित चुकाने का आदेश दिया गया।
- निष्पादन कार्यवाही: डिक्री के निष्पादन के लिए चेन्नई के चूलई स्थित एक मकान को कुर्क कर नीलाम करने हेतु निष्पादन याचिका (E.P. No. 199 of 1998) दायर की गई।
- नीलामी: कई बार नीलामी विफल रहने और ‘अपसेट प्राइस’ (न्यूनतम बोली मूल्य) को 16,25,000 रुपये से घटाकर 11,00,000 रुपये करने के बाद, अंततः 12 सितंबर, 2002 को संपत्ति 11,03,000 रुपये में अपीलकर्ता जी.आर. सेलवाराज को बेच दी गई।
निर्णित ऋणी ने आदेश XXI नियम 90 CPC के तहत आवेदन (E.A. No. 475 of 2002) दायर कर बिक्री को रद्द करने की मांग की। उन्होंने आरोप लगाया कि अपसेट प्राइस कम करने में अनियमितता हुई थी। निष्पादन न्यायालय ने 2004 में और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने 2007 में इस आवेदन को खारिज कर दिया था।
हालाँकि, मद्रास हाईकोर्ट ने 10 फरवरी, 2009 को पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) में नीलामी को रद्द कर दिया। हाईकोर्ट का तर्क था कि आदेश XXI नियम 66(2)(a) CPC के तहत निष्पादन न्यायालय यह सत्यापित करने में विफल रहा कि क्या संपत्ति के एक हिस्से की बिक्री ही पर्याप्त होती।
हाईकोर्ट का दृष्टिकोण और पक्षकारों की दलीलें
मद्रास हाईकोर्ट ने माना कि आदेश XXI नियम 90(3) CPC के तहत एक रोक है जो उन आधारों पर बिक्री रद्द करने से मना करती है जिन्हें बिक्री उद्घोषणा से पहले उठाया जा सकता था। इसके बावजूद, हाईकोर्ट ने इस रोक को लागू नहीं किया। हाईकोर्ट ने पुराने निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि पूरी संपत्ति बेचने से निर्णित ऋणी को “पर्याप्त क्षति” (Substantial Injury) हुई है और संपत्ति के केवल एक हिस्से को बेचने पर विचार करना न्यायालय का स्वतंत्र दायित्व था।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण (Supreme Court’s Analysis)
सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य रूप से यह विचार किया कि क्या 1976 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया आदेश XXI नियम 90(3) CPC, निर्णित ऋणी की दलीलों पर प्रभावी होगा, जब वे उद्घोषणा से पहले “संपत्ति के हिस्से की बिक्री” का मुद्दा उठाने में विफल रहे थे।
1. आदेश XXI नियम 90(3) CPC के तहत वैधानिक रोक कोर्ट ने नोट किया कि 1977 से पहले नियम 90 में उप-नियम (3) नहीं था। संशोधित प्रावधान स्पष्ट रूप से कहता है:
“इस नियम के अधीन विक्रय को अपास्त (Set Aside) करने के लिए कोई भी आवेदन किसी ऐसे आधार पर ग्रहण नहीं किया जाएगा जिसे आवेदक विक्रय की उद्घोषणा तैयार किए जाने की तारीख को या उससे पहले उठा सकता था।”
2. पुराने निर्णयों से भिन्नता पीठ ने स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट ने जिन निर्णयों (अंबाती नरसय्या और तक्कासीला पेद्दा सुब्बा रेड्डी) का हवाला दिया था, वे संशोधन से पहले के आदेश XXI नियम 90 CPC के संदर्भ में दिए गए थे, इसलिए वे वर्तमान स्थिति में पूरी तरह लागू नहीं होते।
3. देश बंधु गुप्ता मामले का संदर्भ कोर्ट ने देश बंधु गुप्ता बनाम एन.एल. आनंद और राजिंदर सिंह (1994) के फैसले का उल्लेख किया, जो संशोधन के बाद की बिक्री से संबंधित था। उस मामले में यह कहा गया था कि नियम 90(3) एक चेतावनी (Caveat Emptor) की तरह है कि निर्णित ऋणी को सतर्क रहना चाहिए। कोर्ट ने कहा:
“यदि उसे [निर्णित ऋणी] न्यायालय से नोटिस मिला था और उसने बिक्री की तारीख से पहले कोई कार्रवाई नहीं की, तो उसे बाद में इसकी वैधता को चुनौती देने से रोक दिया जाएगा।”
4. वर्तमान तथ्यों पर लागू होना कोर्ट ने पाया कि इस मामले में निर्णित ऋणी को:
- अपसेट प्राइस कम करने के हर चरण पर नोटिस दिया गया था।
- उन्होंने कार्यवाही में भाग भी लिया था।
- लेकिन उन्होंने उचित चरण पर आदेश XXI नियम 66(2)(a) CPC के संदर्भ में (संपत्ति के केवल एक हिस्से को बेचने की) आपत्ति नहीं उठाई।
कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा:
“उचित चरण पर अनियमितता का मुद्दा उठाने में विफल रहने के बाद… अब उनके लिए यह खुला नहीं है कि वे इतनी देरी से ऐसी दलील दें और लापरवाही से इसका बोझ निष्पादन न्यायालय पर डाल दें।”
फैसला (Decision)
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया कि निर्णित ऋणी आदेश XXI नियम 90(3) CPC के तहत बिक्री को अमान्य कराने से बाधित थे, क्योंकि उन्होंने समय रहते आपत्ति नहीं उठाई थी। कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने इस वैधानिक रोक को प्रभावी बनाने में गलती की।
आदेश:
- नीलामी क्रेता द्वारा दायर अपील को स्वीकार किया गया।
- मद्रास हाईकोर्ट के 10.02.2009 के फैसले को रद्द कर दिया गया।
- निष्पादन न्यायालय के आदेश (जिसमें बिक्री की पुष्टि की गई थी) को बहाल कर दिया गया।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: जी.आर. सेलवाराज (मृत) द्वारा कानूनी प्रतिनिधि बनाम के.जे. प्रकाश कुमार और अन्य
- केस संख्या: सिविल अपील संख्या 8887 ऑफ 2011
- पीठ: जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस आलोक अराधे




