सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय आपराधिक कानून से जुड़ी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि यदि कोई आरोपी स्वयं थाने जाकर हत्या की बात स्वीकार करता है और उस पर आधारित प्राथमिकी (FIR) दर्ज होती है, तो वह रिपोर्ट भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत अस्वीकार्य है और उसके आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा कि ऐसी स्वीकारोक्ति को चिकित्सकीय साक्ष्य के समर्थन में प्रयोग करना गंभीर कानूनी त्रुटि है।
जस्टिस जे. बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के उस निर्णय को निरस्त कर दिया, जिसमें आरोपी नारायण यादव को आईपीसी की धारा 304 भाग-1 के तहत दोषी ठहराया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यादव को सभी आरोपों से बरी कर दिया और कहा कि अभियोजन का पूरा मामला “कानून की दृष्टि से अस्वीकार्य साक्ष्य” पर आधारित था, जिससे यह “बिना साक्ष्य का मामला” बनता है।
मामला क्या था?
यह मामला 27 सितंबर 2019 को नारायण यादव द्वारा दर्ज कराई गई FIR से जुड़ा है। उसमें उसने स्वीकार किया था कि 24 सितंबर 2019 को वह अपने परिचित राम बाबू शर्मा के साथ शराब पी रहा था। इस दौरान उसने शर्मा को अपनी प्रेमिका की तस्वीर दिखाई, जिस पर शर्मा ने कथित तौर पर कहा – “अपनी गर्लफ्रेंड को एक रात के लिए मेरे पास छोड़ दे।”

FIR के अनुसार, इस पर झगड़ा हुआ और नारायण यादव ने गुस्से में शर्मा पर सब्जी काटने वाले चाकू और लकड़ी के लट्ठे से हमला कर दिया, जिससे उसकी मौत हो गई। बाद में उसने शव को ढककर छिपा दिया, कमरे से ₹7000 लिए और मृतक की बोलेरो गाड़ी लेकर भाग गया।
पुलिस ने जांच शुरू की, शव मृतक के घर से बरामद हुआ और घटनास्थल से चाकू जब्त किया गया। डॉक्टर आर. के. दिव्या (PW-10) की गवाही के अनुसार, शव पर छह चीरने वाले घाव थे और मृत्यु का कारण “छाती के दाहिने हिस्से से अत्यधिक रक्तस्राव और फेफड़े के ऊपरी भाग को लगी चोट के कारण हुआ शॉक” बताया गया।
कोरबा सत्र न्यायालय ने यादव को IPC की धारा 302 के तहत दोषी माना। हाईकोर्ट ने अपील में इसे हत्या न मानकर गैर-इरादतन हत्या (धारा 304 भाग-1) में बदला और IPC की धारा 300 के अपवाद 4 का लाभ दिया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने सबसे बड़ी गलती FIR पर भरोसा करने की की।
FIR की स्वीकारोक्ति संबंधी वैधता
कोर्ट ने दो टूक कहा:
“जब FIR आरोपी द्वारा दर्ज कराई गई हो और उसमें स्वीकारोक्ति हो, तो वह FIR साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत निषिद्ध है।”
कोर्ट ने निसार अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अघ्नू नागेसिया बनाम बिहार राज्य जैसे निर्णयों का हवाला देते हुए कहा:
“FIR कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। इसे केवल धारा 157 के तहत गवाह की पुष्टि करने या धारा 145 के तहत विरोधाभास दिखाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। यदि FIR में स्वीकारोक्ति हो, तो वह अभियुक्त के खिलाफ साक्ष्य के रूप में प्रयोग नहीं की जा सकती।”
इसलिए जब FIR को धारा 25 के अंतर्गत अस्वीकार्य माना गया, तो केवल डॉक्टर की रिपोर्ट और पंच गवाहों की मौखिक गवाही ही बचती है।
मेडिकल और पंच गवाहों का मूल्यांकन
कोर्ट ने स्पष्ट किया:
“डॉक्टर कोई तथ्यात्मक गवाह नहीं होता… उसका साक्ष्य केवल परामर्शात्मक होता है… किसी आरोपी को केवल डॉक्टर की गवाही के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”
साथ ही यह भी पाया गया कि अधिकांश पंच गवाह शत्रुतापूर्ण हो गए थे और पंचनामे की सामग्री को अभियोजन साबित नहीं कर पाया। इसलिए धारा 27 के तहत कोई वैधानिक खोज स्थापित नहीं हुई।
आचरण और अपवाद 4 का अनुचित प्रयोग
राज्य ने तर्क दिया कि आरोपी का FIR दर्ज कराना और शव की जानकारी देना उसका आचरण है जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत प्रासंगिक है। इस पर कोर्ट ने आगाह किया:
“हालांकि आरोपी का आचरण धारा 8 के तहत प्रासंगिक हो सकता है, पर वह अकेले हत्या जैसे गंभीर अपराध में दोषसिद्धि का आधार नहीं हो सकता।”
कोर्ट ने IPC की धारा 300 के अपवाद 4 (अचानक झगड़ा) के गलत प्रयोग को भी रेखांकित किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“यह कोई अचानक झगड़े का मामला नहीं था। मृतक निहत्था था, और हमला एकतरफा था। आरोपी ने अत्यधिक हिंसा का प्रयोग किया और असमान आचरण किया। इसलिए अपवाद 4 लागू नहीं हो सकता।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर देखा जाए तो शायद अपवाद 1 (गंभीर और अचानक उकसावे) ज्यादा उपयुक्त होता, लेकिन चूंकि दोषसिद्धि वैधानिक साक्ष्य के अभाव में समाप्त की गई, इसलिए उस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा पारित निर्णय विधि के अनुसार टिकाऊ नहीं है।”
कोर्ट ने नारायण यादव को सभी आरोपों से बरी कर दिया और उसकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।