सुप्रीम कोर्ट ने बाल तस्करी (Child Trafficking) और व्यावसायिक यौन शोषण के एक मामले में आरोपी की सजा को बरकरार रखा है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि नाबालिग पीड़िता की गवाही विश्वसनीय है, तो सजा सुनाने के लिए किसी अन्य पुष्टि (Corroboration) की आवश्यकता नहीं है।
के.पी. किरणकुमार @ किरण बनाम स्टेट बाय पीन्या पुलिस के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी (A1) द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और कर्नाटक हाईकोर्ट के उन फैसलों को सही ठहराया जिनमें आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 366A, 372, 373 और 34 के साथ अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 (ITPA) की धारा 3, 4, 5 और 6 के तहत दोषी पाया गया था।
जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने टिप्पणी की कि यह मामला भारत में बाल तस्करी और व्यावसायिक यौन शोषण की “अत्यंत विचलित करने वाली सच्चाई” को उजागर करता है। कोर्ट ने इसे ऐसा अपराध बताया जो गरिमा, शारीरिक अखंडता और हर बच्चे को शोषण से बचाने के राज्य के संवैधानिक वादे की नींव पर प्रहार करता है।
मामले की पृष्ठभूमि (Background)
अभियोजन पक्ष के अनुसार, घटना 22 नवंबर 2010 की है। पीन्या पुलिस स्टेशन के अधिकारी एच. सिडप्पा (PW-1) को एनजीओ कार्यकर्ताओं से सूचना मिली थी कि टी. दासरहल्ली, बैंगलोर में एक किराए के मकान में नाबालिग लड़कियों से देह व्यापार कराया जा रहा है।
इस सूचना पर कार्रवाई करते हुए पुलिस ने एक टीम बनाई और जयकर (PW-8) को फर्जी ग्राहक (Decoy Witness) बनाकर भेजा। PW-8 ने आरोपी (अपीलकर्ता) को नाबालिग पीड़िता (PW-13) के साथ संबंध बनाने के लिए पैसे दिए। इशारा मिलते ही पुलिस ने छापा मारा और पीड़िता को बचाया। मौके से नोट, मोबाइल फोन और अन्य आपत्तिजनक सामग्री बरामद की गई।
ट्रायल कोर्ट ने 25 जुलाई 2013 को मुख्य आरोपी और उसकी पत्नी (A2) को दोषी ठहराया था। इसके बाद, कर्नाटक हाईकोर्ट ने 5 फरवरी 2025 को उनकी अपील खारिज कर दी थी और कहा था कि सजा कम करने के लिए कोई आधार मौजूद नहीं है।
पक्षों की दलीलें (Arguments)
अपीलकर्ता के वकील ने पीड़िता के बयानों और अभियोजन के मामले को कई आधारों पर चुनौती दी:
- गवाही में विरोधाभास: बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि पीड़िता ने कोर्ट में दावा किया कि जबरन यौन संबंध बनाने से उसे चोटें आईं और खून बहने लगा, जबकि मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए उसके पिछले बयान में इसका जिक्र नहीं था।
- जगह का विवरण (Topography): बचाव पक्ष ने घटनास्थल के नक्शे को लेकर विरोधाभास उजागर किया। पीड़िता ने बताया था कि वहां दो कमरे थे, जबकि अन्य गवाहों ने कहा कि वहां एक हॉल था।
- प्रक्रिया का उल्लंघन: यह तर्क दिया गया कि तलाशी और बरामदगी के दौरान ITPA की धारा 15(2) का उल्लंघन किया गया। इस धारा के अनुसार, तलाशी के दौरान इलाके के दो या अधिक सम्मानित निवासियों (जिसमें कम से कम एक महिला हो) का उपस्थित होना अनिवार्य है।
कोर्ट का विश्लेषण (Court’s Analysis)
नाबालिग पीड़िता की गवाही पर सुप्रीम कोर्ट ने पीड़िता की गवाही में मामूली विरोधाभासों से जुड़े तर्कों को खारिज कर दिया। जस्टिस बागची ने फैसले में लिखा कि यौन तस्करी की नाबालिग पीड़ितों की गवाही को “संवेदनशीलता और यथार्थवाद” (Sensitivity and Realism) के साथ देखा जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा:
“कानून प्रवर्तन एजेंसियों और कोर्ट के सामने भी यौन शोषण के भयानक मंजर को याद करना और सुनाना एक बेहद कड़वा अनुभव होता है, जिससे पीड़िता का दोबारा उत्पीड़न (Secondary Victimisation) होता है… इस पृष्ठभूमि में, पीड़िता के सबूतों का न्यायिक मूल्यांकन संवेदनशीलता और यथार्थवाद के साथ किया जाना चाहिए।”
स्टेट ऑफ पंजाब बनाम गुरमीत सिंह (1996) के फैसले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि यदि पीड़िता का बयान विश्वसनीय है, तो केवल उसकी गवाही पर भी सजा दी जा सकती है। पीठ ने पाया कि पीड़िता (PW-13) की गवाही “सबसे विश्वसनीय” है और एनजीओ कार्यकर्ता (PW-11), डिकॉय गवाह (PW-8) और स्वतंत्र गवाह (PW-12) ने इसकी पुष्टि की है।
उम्र का निर्धारण कोर्ट ने आरोपी के उस तर्क को भी खारिज कर दिया जिसमें ऑसिफिकेशन टेस्ट (हड्डी की जांच) न होने का मुद्दा उठाया गया था। स्कूल हेडमास्टर द्वारा जारी प्रमाण पत्र (Ex. P-3), जिसमें पीड़िता की जन्म तिथि 24 अप्रैल 1994 दर्ज थी, पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि दस्तावेजी सबूत मेडिकल राय से ऊपर माने जाएंगे।
जरनैल सिंह बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा (2013) का हवाला देते हुए, पीठ ने पुष्टि की कि जुवेनाइल जस्टिस नियमों (नियम 12) के तहत, मैट्रिकुलेशन या स्कूल प्रमाण पत्र उम्र निर्धारण के लिए सर्वोच्च विकल्प है। कोर्ट ने नोट किया कि यदि ऐसा प्रमाण पत्र उपलब्ध है, तो मेडिकल राय सहित “किसी अन्य सामग्री पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए।”
ITPA के तहत तलाशी की वैधता धारा 15(2) के कथित उल्लंघन पर, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह प्रावधान CrPC की धारा 100(4) के समान है। बाई राधा बनाम स्टेट ऑफ गुजरात (1969) का उल्लेख करते हुए, कोर्ट ने कहा कि इस प्रावधान का उल्लंघन महज एक अनियमितता है और इससे तब तक पूरा ट्रायल अवैध नहीं होता जब तक कि यह न दिखाया जाए कि इससे न्याय में विफलता (Failure of Justice) हुई है।
कोर्ट ने कहा:
“मौजूदा मामले में, तलाशी डिकॉय गवाह PW-8 और PW-12 की उपस्थिति में की गई थी। वे उसी शहर के रहने वाले सम्मानित और स्वतंत्र व्यक्ति हैं… धारा 15(2) की वैधानिक आवश्यकताओं का पर्याप्त रूप से पालन किया गया था।”
फैसला (Decision)
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष ने संदेह से परे यह साबित कर दिया है कि आरोपी और उसकी पत्नी ने किराए के परिसर का उपयोग नाबालिग पीड़िता के व्यावसायिक यौन शोषण के लिए किया था। कोर्ट ने अपील खारिज करते हुए हाईकोर्ट द्वारा दी गई सजा को बरकरार रखा।
केस डिटेल्स (Case Details):
- केस टाइटल: के.पी. किरणकुमार @ किरण बनाम स्टेट बाय पीन्या पुलिस
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर /2025 (SLP (Crl.) No. 11287/2025 से उद्भूत)
- साइटेशन: 2025 INSC 1473
- कोरम: जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस जॉयमाल्या बागची

