सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक हालिया फैसले में यह स्पष्ट किया है कि किसी वचन पत्र (promissory note) के तहत वसूली योग्य राशि को केवल इसलिए कम नहीं किया जा सकता क्योंकि लेन-देन का एक हिस्सा नकद में किया गया था और उसका कोई दस्तावेजी सबूत मौजूद नहीं है। जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने केरल हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें वसूली की राशि को घटा दिया गया था, और निचली अदालत के मूल फैसले को बहाल कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला, जॉर्जकुट्टी चाको बनाम एम.एन. साजी, एक वचन पत्र पर आधारित पैसे की वसूली के मुकदमे से संबंधित है। अपीलकर्ता जॉर्जकुट्टी चाको ने प्रतिवादी एम.एन. साजी को 30,80,000 रुपये उधार दिए थे, जिसे प्रतिवादी ने एक वचन पत्र निष्पादित करके स्वीकार किया था। जब प्रतिवादी राशि चुकाने में विफल रहा, तो अपीलकर्ता ने मुकदमा दायर किया।

निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने अपीलकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाते हुए 35,29,680 रुपये की वसूली का आदेश दिया। हालांकि, प्रतिवादी ने इस फैसले को केरल हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने फैसले को संशोधित करते हुए वसूली योग्य राशि को घटाकर 22,00,000 रुपये कर दिया। इसी कटौती के खिलाफ अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
अपीलकर्ता की दलीलें
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने वचन पत्र में उल्लिखित राशि को एकतरफा रूप से कम करके गलती की है, खासकर तब जब वचन पत्र की वैधता को दोनों निचली अदालतों और स्वयं प्रतिवादी ने भी स्वीकार किया था।
अपीलकर्ता ने दलील दी कि हाईकोर्ट का यह तर्क त्रुटिपूर्ण था कि केवल 22,00,000 रुपये के लिए ही दस्तावेजी सबूत मौजूद थे। अपीलकर्ता का “स्पष्ट पक्ष” यह था कि 22,00,000 रुपये बैंकिंग माध्यमों से हस्तांतरित किए गए थे, जबकि शेष राशि का भुगतान नकद में किया गया था। यह तर्क दिया गया कि लेन-देन के नकद हिस्से को केवल इस आधार पर खारिज करना कि यह एक “मौखिक बयान” था, गलत था, विशेष रूप से जब प्रतिवादी ने अपने द्वारा हस्ताक्षरित वचन पत्र में किसी भी तथ्यात्मक अशुद्धि या हेरफेर का आरोप कभी नहीं लगाया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने गौर किया कि दो बार नोटिस दिए जाने के बावजूद प्रतिवादी कार्यवाही में उपस्थित नहीं हुआ।
रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री की समीक्षा के बाद, पीठ इस निष्कर्ष पर पहुंची कि “हस्तक्षेप का एक मामला बनता है।” कोर्ट ने कहा कि चूँकि वचन पत्र को सही माना गया था और उस पर अविश्वास नहीं किया गया था, इसलिए उसमें उल्लिखित तथ्यों को गलत साबित करने का भार प्रतिवादी पर था।
फैसले में नकद लेन-देन की प्रकृति पर जोर देते हुए कहा गया, “यह कोई असामान्य बात नहीं है कि पैसे के लेन-देन में नकदी का भी एक घटक शामिल होता है।” कोर्ट ने ऐसे लेन-देन के लिए सबूत के भार पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। पीठ ने कहा, “सिर्फ इसलिए कि कोई व्यक्ति आधिकारिक माध्यमों यानी किसी परक्राम्य लिखत या बैंक लेनदेन के माध्यम से हस्तांतरण को साबित करने में सक्षम नहीं है, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि इस तरह की राशि का भुगतान नकद के माध्यम से नहीं किया गया था, खासकर जब इस आशय का एक स्पष्ट बयान अपीलकर्ता द्वारा संबंधित अदालत के समक्ष दिया गया था।”
इस पर और विस्तार से बताते हुए, कोर्ट ने कहा, “जो व्यक्ति नकद देता है, उसके पास प्रत्यक्ष रूप से कोई दस्तावेजी सबूत नहीं होता है।” कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि यद्यपि कभी-कभी नकद भुगतान के लिए रसीद ली जा सकती है, लेकिन “उसकी अनुपस्थिति इस पक्ष को नकार और अस्वीकृत नहीं करेगी कि पार्टियों के बीच नकद लेनदेन भी हुआ था।”
कोर्ट ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) का भी उल्लेख किया और कहा कि “कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण की प्रारंभिक धारणा इस अधिनियम से भी आती है और इस प्रकार यह साबित करने का भार प्रतिवादी पर है कि ऐसी कोई राशि नहीं दी गई थी।”
हाईकोर्ट के फैसले को, जिसमें उपलब्ध दस्तावेज़ों के आधार पर राशि का विभाजन किया गया था, “स्पष्ट रूप से त्रुटिपूर्ण और इसलिए, अस्थिर” पाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार कर लिया। 1 सितंबर, 2025 के इस फैसले में हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया गया और निचली अदालत के आदेश को पूरी तरह से बहाल कर दिया गया।