सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अदालतों को भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी ठहराए गए सरकारी कर्मचारियों की सजा पर बिना किसी उचित कारण के रोक नहीं लगानी चाहिए। यह टिप्पणी अदालत ने एक विशेष अनुमति याचिका खारिज करते हुए दी, जिसमें याची ने अपनी दोष सिद्धि पर रोक लगाने की मांग की थी। यह आदेश 19 जून 2025 को न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की खंडपीठ ने रघुनाथ बंसरोपन पांडे बनाम गुजरात राज्य मामले में पारित किया।
पृष्ठभूमि
याची रघुनाथ बंसरोपन पांडे एक सरकारी कर्मचारी थे जिन्हें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 और 12 के साथ धारा 13(1)(d) सहपठित धारा 13(2) के अंतर्गत दोषी ठहराया गया था। ट्रायल कोर्ट ने उन्हें धारा 13(1)(d)/13(2) के अंतर्गत तीन वर्ष की सजा तथा धारा 7/12 के तहत दो वर्ष की सजा सुनाई थी।

उन्होंने गुजरात हाईकोर्ट में अपील दायर की और सजा पर स्थगन की मांग की। हाईकोर्ट ने 3 अप्रैल 2023 को पारित आदेश में याची की सजा पर तो स्थगन दे दिया, लेकिन यह स्पष्ट किया कि यह दोष सिद्धि (conviction) पर रोक नहीं मानी जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही
हाईकोर्ट के इस आदेश को चुनौती देते हुए याची ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दाखिल की। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका स्वीकार करने में हुई देरी को माफ किया और पक्षकारों की दलीलों के साथ-साथ हाईकोर्ट के आदेश का परीक्षण किया।
अदालत ने K.C. Sareen बनाम CBI, चंडीगढ़ (2001) 6 SCC 584 और CBI बनाम एम.एन. शर्मा (2008) 8 SCC 549 में दिए गए निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि भ्रष्टाचार के मामलों में दोषसिद्ध सरकारी अधिकारियों की सजा पर रोक लगाने से अदालतों को यथासंभव परहेज़ करना चाहिए।
न्यायालय ने कहा:
“भ्रष्टाचार के आरोप में दोषसिद्ध सरकारी कर्मचारियों की सजा पर रोक लगाने से अदालतों को यथासंभव परहेज़ करना चाहिए। हमारे समक्ष ऐसा कोई उचित कारण प्रस्तुत नहीं किया गया जिससे अलग दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता हो।”
निर्णय
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया:
“हम पाते हैं कि हाईकोर्ट का आदेश किसी भी प्रकार की त्रुटि से ग्रसित नहीं है जो हस्तक्षेप की मांग करता हो।”
इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने विशेष अनुमति याचिका को निराधार बताते हुए खारिज कर दिया और सभी लंबित प्रार्थनाएं भी निस्तारित कर दीं।