मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै पीठ ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसला सुनाया, जिसमें जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन और जस्टिस आर. पूर्निमा की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत व्यभिचार (adultery) के आधार पर तलाक़ के मामले में कथित व्यभिचारी (alleged adulterer) को सह-प्रतिवादी (co-respondent) बनाना अनिवार्य है?
यह निर्णय वर्षों से चली आ रही इस बहस को समाप्त करता है और वैवाहिक विवादों में न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश स्थापित करता है। इसके साथ ही, यह फ़ैसला बिना प्रमाण के व्यभिचार के झूठे आरोपों को रोकने में भी मदद करेगा।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक पति-पत्नी के बीच वैवाहिक विवाद से जुड़ा है, जिनकी शादी 1999 में हुई थी और उनके दो बच्चे हैं। समय के साथ उनके संबंध बिगड़ गए, जिसके बाद पति ने 2017 में व्यभिचार के आधार पर तलाक़ के लिए याचिका दायर की। वहीं, पत्नी ने वैवाहिक संबंधों की पुनर्स्थापना (restitution of conjugal rights) के लिए याचिका दायर की, ताकि विवाह को बचाया जा सके।
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सिवगंगई की पारिवारिक अदालत (Family Court) ने पति के पक्ष में फैसला सुनाया, उसे तलाक़ की मंज़ूरी दी और पत्नी की याचिका को खारिज कर दिया। पत्नी ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ मद्रास हाईकोर्ट में अपील दायर की, यह तर्क देते हुए कि पति ने कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी नहीं बनाया, जिससे मामला क़ानूनी रूप से अधिकारहीन (unsustainable) हो गया।
महत्वपूर्ण क़ानूनी मुद्दे
कोर्ट के समक्ष मुख्य क़ानूनी प्रश्न यह था कि क्या व्यभिचार के आधार पर तलाक़ की याचिका में कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी बनाना आवश्यक है?
क़ानूनी अस्पष्टता और विरोधाभासी न्यायिक फैसले
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में व्यभिचार के आधार पर तलाक़ की अनुमति है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से यह नहीं बताता कि क्या कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी के रूप में शामिल करना अनिवार्य है या नहीं। इस वजह से भारत के विभिन्न उच्च न्यायालयों के फ़ैसलों में विरोधाभास रहा है:
- दिल्ली और मध्य प्रदेश हाईकोर्ट: इन अदालतों ने कहा कि कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी बनाना आवश्यक नहीं है, क्योंकि तलाक़ का फ़ैसला उसके बिना भी किया जा सकता है।
- आंध्र प्रदेश और इलाहाबाद हाईकोर्ट: इन न्यायालयों ने कहा कि जब तक कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी नहीं बनाया जाता, तब तक व्यभिचार के आधार पर तलाक़ की याचिका क़ानूनी रूप से मान्य नहीं होगी।
- कर्नाटक हाईकोर्ट: इसने बीच का रास्ता अपनाते हुए कहा कि कथित व्यभिचारी ज़रूरी पक्षकार (necessary party) नहीं, बल्कि एक उचित पक्षकार (proper party) है, यानी उसे शामिल करना अच्छा रहेगा, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है।
- मद्रास हाईकोर्ट (पूर्व के फ़ैसले): मद्रास हाईकोर्ट की तीन अलग-अलग एकल न्यायाधीश पीठों ने माना कि यदि कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी नहीं बनाया जाता, तो तलाक़ याचिका त्रुटिपूर्ण होगी।
इस क़ानूनी असमंजस को देखते हुए, मद्रास हाईकोर्ट के लिए इस मामले में स्पष्ट दिशा-निर्देश स्थापित करना आवश्यक हो गया था।
कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियां
मद्रास हाईकोर्ट की खंडपीठ ने निष्पक्ष सुनवाई, गोपनीयता और व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए यह फ़ैसला सुनाया।
1. सुनवाई का अधिकार और प्रतिष्ठा की रक्षा
अदालत ने कहा कि जिस व्यक्ति पर व्यभिचार का आरोप लगाया गया है, उसे अपनी साफ़-सफ़ाई देने का अवसर मिलना चाहिए। यदि अदालत बिना उस व्यक्ति की सुनवाई के ही तलाक़ दे देती है, तो उसकी प्रतिष्ठा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। कोर्ट ने कहा:
“यदि व्यभिचार के आधार पर तलाक़ देने वाले याचिकाकर्ता का पक्ष स्वीकार कर लिया जाए, तो जिस व्यक्ति पर व्यभिचार का आरोप लगाया गया है, उसकी प्रतिष्ठा धूमिल होगी। इसलिए, उसे अपनी सफ़ाई देने का अवसर दिया जाना चाहिए।”
2. गोपनीयता बनाम निष्पक्षता
कुछ अदालतों ने तर्क दिया था कि कथित व्यभिचारी को मामले में घसीटना उसकी गोपनीयता का उल्लंघन हो सकता है। लेकिन मद्रास हाईकोर्ट ने इस दावे को ख़ारिज करते हुए कहा कि किसी निर्दोष व्यक्ति पर आरोप लगाकर उसकी प्रतिष्ठा धूमिल करना अधिक अन्यायपूर्ण है।
“हम नहीं मानते कि कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी बनाना उसकी गोपनीयता का उल्लंघन करता है। बल्कि, यह सबसे उचित कार्य है।”
3. झूठे व्यभिचार के आरोपों को रोकना
अदालत ने यह भी माना कि कुछ लोग तलाक़ के मुकदमों में झूठे व्यभिचार के आरोप लगाकर अपने पक्ष को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर कथित व्यभिचारी को अनिवार्य रूप से सह-प्रतिवादी बनाया जाए, तो लोग झूठे आरोप लगाने से पहले दो बार सोचेंगे।
“यदि कथित व्यभिचारी को सह-प्रतिवादी बनाना अनिवार्य कर दिया जाए, तो झूठे आरोप लगाने से पहले व्यक्ति दो बार सोचेगा।”
4. ‘असंभव कार्य करने का क़ानूनी दबाव नहीं’
अदालत ने माना कि कुछ मामलों में व्यक्ति को अपने जीवनसाथी के व्यभिचार के बारे में संदेह हो सकता है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता हो सकता कि वह किसके साथ संलिप्त था/थी। ऐसे मामलों में, अदालत ने कहा कि “Lex non cogit ad impossibilia” (क़ानून असंभव कार्य करने के लिए बाध्य नहीं करता) का सिद्धांत लागू होगा।
इसलिए:
- यदि व्यभिचारी की पहचान ज्ञात है, तो उसे सह-प्रतिवादी बनाना अनिवार्य होगा।
- यदि व्यभिचारी अज्ञात है या मृतक है, तो याचिकाकर्ता को कोर्ट से अनुमति लेनी होगी।
अंतिम फ़ैसला
हाईकोर्ट के निर्णय के प्रमुख बिंदु
यदि कथित व्यभिचारी की पहचान स्पष्ट हो, तो उसे सह-प्रतिवादी बनाया जाना अनिवार्य है। अन्यथा, तलाक़ की याचिका अस्वीकृत कर दी जाएगी।
यदि कथित व्यभिचारी अज्ञात है या मृतक है, तो याचिकाकर्ता को कोर्ट से छूट लेने की आवश्यकता होगी।
इस मामले में, पति ने कथित व्यभिचारी “जगदीशन” का नाम लिया था, लेकिन उसे सह-प्रतिवादी नहीं बनाया। अतः उसकी तलाक़ याचिका त्रुटिपूर्ण मानी गई।
हाईकोर्ट ने पारिवारिक अदालत के फ़ैसले को पलट दिया, तलाक़ को निरस्त कर दिया और पत्नी की अपील स्वीकार कर ली।