सुप्रीम कोर्ट ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (NI Act) की धारा 148 के तहत अपील के दौरान मुआवजे की 20% राशि जमा करने से जुड़े एक अहम कानूनी सवाल को बड़ी बेंच (Larger Bench) के पास भेज दिया है। यह मामला विशेष रूप से उन स्थितियों से जुड़ा है जहां आरोपी कंपनी पर “कानूनी बाधा” (legal snag) या वाइंडिंग अप (winding up) के कारण मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की पीठ ने स्पष्ट किया कि वे विजय अग्रवाल बनाम मेडिलाइन्स और श्री गुरुदत्त शुगर्स मार्केटिंग प्रा. लि. बनाम पृथ्वीराज सयाजीराव देशमुख के मामलों में समन्वय पीठ (Coordinate Bench) द्वारा दिए गए पूर्व निर्णयों से सहमत नहीं हो पा रहे हैं। उन फैसलों में यह कहा गया था कि धारा 143A और 148 में “ड्रॉअर” (drawer) शब्द का अर्थ सख्ती से केवल कंपनी है, न कि उसके अधिकृत हस्ताक्षरकर्ता या डायरेक्टर।
सुप्रीम कोर्ट उस अपील पर सुनवाई कर रहा था जहां एक डायरेक्टर को धारा 138 के तहत दोषी ठहराया गया था, क्योंकि जिस कंपनी का वह प्रतिनिधित्व कर रहा था, वह बंद (wound up) हो चुकी थी और उस पर मुकदमा नहीं चलाया गया था। अपीलीय अदालत ने धारा 148 के तहत मुआवजे की 20% राशि जमा करने की शर्त पर उसकी सजा को निलंबित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि तकनीकी आधार पर डायरेक्टरों को इस जमा राशि से पूरी तरह छूट देना 2018 के संशोधन के विधायी उद्देश्य को विफल कर देगा।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला प्रतिवादी, स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAIL) और आरोपी कंपनी, शिव महिमा इस्पात प्राइवेट लिमिटेड के बीच एक व्यावसायिक लेनदेन से उत्पन्न हुआ था। वर्ष 2012-13 में, आरोपी कंपनी ने SAIL से हॉट रोल्ड कॉइल्स खरीदीं और 4,82,72,269 रुपये का चेक जारी किया, जिस पर याचिकाकर्ता, भरत मित्तल ने डायरेक्टर के रूप में हस्ताक्षर किए थे। यह चेक “Exceeds Arrangement” टिप्पणी के साथ बाउंस हो गया।
SAIL ने NI Act की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज कराई। ट्रायल के दौरान, 1 दिसंबर 2016 को हाईकोर्ट ने आरोपी कंपनी को वाइंड अप (wind up) करने का आदेश दिया। नतीजतन, अभियोजन केवल याचिकाकर्ता-डायरेक्टर के खिलाफ जारी रहा। ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया और दो साल के साधारण कारावास की सजा सुनाई, साथ ही 8,10,00,000 रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया।
जब याचिकाकर्ता ने इस दोषसिद्धि को चुनौती दी, तो अपीलीय अदालत ने 27 नवंबर 2024 को सजा को इस शर्त पर निलंबित कर दिया कि वह धारा 148 के तहत मुआवजे की राशि का 20% (लगभग 1.62 करोड़ रुपये) जमा करे। याचिकाकर्ता ने इस जमा राशि से छूट की मांग की, जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता की दलीलें: याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आर. बसंत ने सुप्रीम कोर्ट के विजय अग्रवाल और श्री गुरुदत्त शुगर्स के हालिया फैसलों का हवाला दिया। उन्होंने तर्क दिया कि:
- याचिकाकर्ता केवल हस्ताक्षरकर्ता है और चेक का “ड्रॉअर” नहीं है; ड्रॉअर कंपनी है।
- धारा 148 के तहत जमा करने का आदेश केवल “ड्रॉअर” द्वारा दायर अपील पर लागू होता है।
- चूंकि कंपनी लिक्विडेशन में है और याचिकाकर्ता केवल प्रतिनिधि के रूप में उत्तरदायी है, इसलिए उसे 20% राशि जमा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
- याचिकाकर्ता बेरोजगार है और आर्थिक तंगी में है, जिससे इस शर्त को पूरा करना असंभव है।
प्रतिवादी की दलीलें: SAIL की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता नागामुथु ने तर्क दिया कि:
- याचिकाकर्ता कंपनी का सक्रिय प्रबंधन कर रहा था और उसने चेक पर हस्ताक्षर किए थे।
- चूंकि लिक्विडेशन आदेश (कानूनी बाधा) के कारण कंपनी पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, इसलिए याचिकाकर्ता दायित्व से बच नहीं सकता।
- डायरेक्टर को जमा राशि की आवश्यकता से छूट देना धारा 148 के उद्देश्य को विफल कर देगा, जो शिकायतकर्ता को अंतरिम राहत प्रदान करना है।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
वैकल्पिक दायित्व (Vicarious Liability) और कानूनी बाधाएं: कोर्ट ने अनीता हाडा बनाम गॉडफादर ट्रैवल्स के सिद्धांत को दोहराया कि सामान्यतः डायरेक्टरों पर मुकदमा चलाने के लिए कंपनी को आरोपी बनाना आवश्यक है, लेकिन एक अपवाद मौजूद है जहां “कानूनी बाधा” (जैसे वाइंडिंग अप) के कारण कंपनी पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। ऐसे मामलों में, केवल डायरेक्टरों के खिलाफ अभियोजन वैध रूप से जारी रह सकता है।
धारा 148 और विधायी मंशा: पीठ ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (संशोधन) अधिनियम, 2018 के उद्देश्यों का विश्लेषण किया। जजों ने कहा कि धारा 148 को चेक बाउंस मामलों में देरी को रोकने और तुच्छ अपीलों को हतोत्साहित करने के लिए लाया गया था।
विजय अग्रवाल और श्री गुरुदत्त शुगर्स के फैसलों से असहमति: कोर्ट ने पूर्व के फैसलों की जांच की जिनमें “ड्रॉअर” शब्द की सख्त व्याख्या की गई थी। जस्टिस कुमार और जस्टिस अंजारिया ने इस “अत्यधिक शाब्दिक व्याख्या” (overly literal interpretation) से अपनी असहमति व्यक्त की।
पीठ ने टिप्पणी की:
“ऐसी तथ्यात्मक स्थिति में जहां कंपनी का अस्तित्व नहीं है और धारा 138 के तहत कार्यवाही उसके मामलों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ शुरू की गई है, वहां धारा 7 के तहत ‘ड्रॉअर’ की परिभाषा को सख्ती से केवल कंपनी तक सीमित करना एक अनुचित संकीर्ण व्याख्या होगी, जो धारा 143A और 148 के अंतर्निहित विधायी इरादे के विपरीत है।”
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि धारा 138 के तहत कार्यवाही “अर्ध-आपराधिक” (quasi-criminal) और “मुआवजा-उन्मुख” (compensatory) प्रकृति की है। इसलिए, शाब्दिक व्याख्या के बजाय उद्देश्यपूर्ण व्याख्या (purposive interpretation) को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
कोर्ट ने तर्क दिया कि यदि सख्त व्याख्या लागू की जाती है, तो वाइंड-अप कंपनियों के डायरेक्टर मुकदमेबाजी को नियंत्रित करते हुए जमा राशि की आवश्यकता से बच निकलेंगे, जिससे 2018 का संशोधन प्रभावहीन हो जाएगा।
निर्णय
कोर्ट ने माना कि केवल इसलिए कि अपीलकर्ता कंपनी नहीं है, एक डायरेक्टर को धारा 148 के तहत जमा राशि से “व्यापक छूट” (blanket exemption) नहीं दी जा सकती। हालांकि, विजय अग्रवाल और गुरुदत्त शुगर्स का फैसला देने वाली पीठ के समान क्षमता (co-equal strength) की पीठ होने के कारण, जज उन फैसलों को एकतरफा खारिज नहीं कर सकते थे।
तदनुसार, कोर्ट ने निम्नलिखित प्रश्न को आधिकारिक निर्णय के लिए बड़ी बेंच के पास भेजा:
“क्या धारा 141 के साथ पठित धारा 138 के तहत दोषसिद्धि होने पर, धारा 148 द्वारा परिकल्पित अपीलीय जमा राशि का निर्देश एक दोषी डायरेक्टर/अधिकृत हस्ताक्षरकर्ता के खिलाफ दिया जा सकता है, या क्या यह जमा राशि सभी परिदृश्यों में केवल न्यायिक ‘ड्रॉअर/कंपनी’ तक ही सीमित है?”
मामले के दस्तावेजों को बड़ी बेंच के गठन के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के समक्ष रखने का निर्देश दिया गया है।
केस डिटेल्स:
- केस टाइटल: भरत मित्तल बनाम राजस्थान राज्य और अन्य
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील संख्या [ ] ऑफ 2025 (@ SLP (Crl.) No. 12327 of 2025)
- साइटेशन: 2025 INSC 1459
- कोरम: जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया

