सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत दोषसिद्धि की स्थिति में सजा के साथ इतना जुर्माना लगाया जाना चाहिए जिससे चेक की राशि, उस पर ब्याज और मुआवज़ा सम्मिलित रूप से वसूल हो सके। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने मोहम्मद अली द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा दी गई दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
मामला संक्षेप में
शिकायतकर्ता शरणप्पा ने वर्ष 2013 में विजयपुर के प्रथम अतिरिक्त सिविल न्यायाधीश एवं जेएमएफसी की अदालत में आपराधिक वाद संख्या 2378 के तहत मोहम्मद अली के खिलाफ ₹10,00,000 के चेक के अनादरण के लिए अभियोजन शुरू किया था। ट्रायल कोर्ट ने 6 जनवरी 2017 को आरोपी को बरी कर दिया था। इस निर्णय के विरुद्ध शिकायतकर्ता ने कर्नाटक हाईकोर्ट, कलबुर्गी खंडपीठ में अपील दाखिल की।
9 अक्टूबर 2023 को हाईकोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए आरोपी को एन.आई. अधिनियम की धारा 138 के तहत दोषी ठहराया। अदालत ने ₹10,10,000 का जुर्माना लगाया, जिसमें से ₹10,00,000 की राशि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(1)(b) के तहत शिकायतकर्ता को मुआवज़े के रूप में देने का निर्देश दिया गया, जबकि ₹10,000 राज्य के खाते में जमा करने को कहा गया। जुर्माना अदा न करने की स्थिति में छह माह के साधारण कारावास की सजा दी गई।

पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से:
मोहम्मद अली के वकील ने हाईकोर्ट द्वारा दोषमुक्ति को पलटे जाने को चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि धारा 118 और 139 के अंतर्गत अनुमान लगाने के लिए आवश्यक मूलभूत तथ्यों को प्रमाणित नहीं किया गया था। ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई दोषमुक्ति उचित थी, और हाईकोर्ट ने बिना पर्याप्त आधार के उसे पलट दिया।
इसके अतिरिक्त, ₹10,00,000 का मुआवज़ा अत्यधिक और अनुपातहीन बताया गया, क्योंकि यह चेक की राशि के बराबर था।
प्रत्युत्तर में:
शिकायतकर्ता शरणप्पा के वकील ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने एन.आई. अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित विधिक अनुमानों को लागू नहीं किया, जबकि शिकायतकर्ता ने आवश्यक मूल तथ्य सिद्ध किए थे। आरोपी न तो गवाही देने के लिए गवाह-पट्टल पर आए और न ही कोई प्रतिवाद साक्ष्य प्रस्तुत किया, इसलिए हाईकोर्ट द्वारा दोषमुक्ति पलटना और दोषसिद्धि देना उचित था।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
पीठ ने अपीलकर्ता की दोनों दलीलों को अस्वीकार कर दिया।
पहले मुद्दे पर, न्यायालय ने कहा:
“यह कहना कि मूलभूत तथ्यों की अनुपस्थिति थी या धारा 118 और 139 के अंतर्गत उत्तरवादी के पक्ष में अनुमान लगाना ही त्रुटिपूर्ण था, स्वीकार्य नहीं है, विशेष रूप से जब आरोपी ने कोई प्रतिवाद साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया।”
अदालत ने माना कि शिकायतकर्ता ने आवश्यक आधारभूत तथ्यों को प्रमाणित कर दिया था और प्रतिवाद साक्ष्य की अनुपस्थिति में हाईकोर्ट द्वारा विधिक अनुमानों को लागू कर दोषसिद्धि देना न्यायसंगत था।
दूसरे मुद्दे पर, न्यायालय ने R. Vijayan बनाम Baby, (2012) 1 SCC 260 के निर्णय का हवाला देते हुए कहा:
“धारा 138 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को चेक की राशि के दोगुने तक का जुर्माना, कारावास के साथ या बिना, लगाने का अधिकार है। ऐसे सभी मामलों में, जहां दोषसिद्धि होती है, वहां चेक की राशि की वसूली के लिए पर्याप्त जुर्माना लगाया जाना चाहिए। इसमें चेक पर ब्याज और मुआवज़ा भी शामिल हो सकता है, जो कि जुर्माने की राशि में से दिया जा सकता है।”
अदालत ने स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट द्वारा ₹10,10,000 का जुर्माना लगाया गया था, जिसमें ₹10,00,000 मुआवज़े के रूप में शिकायतकर्ता को दिया जाना था और ₹10,000 राज्य को। यह जुर्माना और मुआवज़ा अलग-अलग नहीं थे।
“हम यह नहीं मानते कि अपीलकर्ता को ₹10,10,000 जुर्माना और ₹10,00,000 अतिरिक्त मुआवज़ा देने का निर्देश दिया गया है। वास्तव में, प्रतिवादी को मुआवज़े के रूप में कोई अतिरिक्त राशि नहीं मिली है। उसे केवल ₹10,00,000 की चेक राशि प्राप्त होगी, इससे अधिक कुछ नहीं।”
अंतिम आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि या सजा में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। हालांकि, अपीलकर्ता के वकील के निवेदन पर न्यायालय ने निर्णय की तिथि से तीन महीने का समय जुर्माने की राशि जमा करने के लिए प्रदान किया। शिकायतकर्ता को राशि जमा होने पर भुगतान किया जाएगा, अन्यथा अपीलकर्ता को छह महीने का साधारण कारावास भुगतना होगा।
अपील इसी के साथ निपटा दी गई।