सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत कोई आरोपी अगर पहले ही एक क्वैशिंग याचिका दाखिल कर चुका है, तो वह उसी आधार पर दूसरी याचिका नहीं दाखिल कर सकता। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि इस तरह की याचिका को सुनना, समकक्ष पीठ के पूर्व आदेश की समीक्षा करने जैसा होगा, जो कि CrPC की धारा 362 के तहत स्पष्ट रूप से वर्जित है।
पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें हाईकोर्ट ने दूसरी क्वैशिंग याचिका स्वीकार करते हुए आपराधिक शिकायत खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत में लंबित आपराधिक कार्यवाही को पुनः बहाल कर दिया और यह स्पष्ट किया कि हालांकि दूसरी याचिका पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है, लेकिन याचिकाकर्ता को परिस्थितियों में बदलाव साबित करना होगा।
मामला क्या था?
यह विवाद 2005 से 2008 के बीच हुए ऋण लेन-देन से जुड़ा है, जिसमें अपीलकर्ता एम.सी. रविकुमार (शिकायतकर्ता) और आरोपीगण (जो साहूकार थे) शामिल थे। ऋण के बदले शिकायतकर्ता ने थंजावुर और चेन्नई स्थित अपनी संपत्तियों की मूल रजिस्ट्री दस्तावेज़ गिरवी रख दिए थे।

शिकायतकर्ता का आरोप था कि ₹1,65,98,000 की पूरी रकम चुकाने के बावजूद आरोपीगण ने रजिस्ट्री दस्तावेज़ वापस नहीं किए। 30 अगस्त 2011 को उन्हें लीगल नोटिस भेजा गया। बाद में उन्हें पता चला कि उत्तरदाता संख्या 1 डी.एस. वेलमुरुगन ने थंजावुर संपत्ति से संबंधित एक “फर्जी बिक्री विलेख” तैयार कर दी है।
इसके बाद कई कानूनी कार्यवाहियां हुईं। सबसे पहले एक आपराधिक शिकायत (क्राइम नंबर 193/2012) दर्ज हुई, लेकिन पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी, जिसे ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इस खारिजी आदेश से शिकायतकर्ता के वैकल्पिक उपायों का अधिकार बाधित नहीं होगा।
बाद में एक अन्य व्यक्ति पी. जोतिकुमार ने शिकायतकर्ता के खिलाफ एक सिविल सूट (सिविल सूट नंबर 79/2018) दायर किया, जिसमें उसने चेन्नई स्थित फ्लैट के मूल दस्तावेज़ पेश किए—वही दस्तावेज़ जिन्हें शिकायतकर्ता ने गिरवी रखने का दावा किया था।
इससे आहत होकर शिकायतकर्ता ने 2019 में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, सईदापेट, चेन्नई के समक्ष आपराधिक शिकायत संख्या 1828/2019 दायर की। इसमें आरोपीगण और पी. जोतिकुमार पर IPC की कई धाराओं के तहत आपराधिक विश्वासघात, धोखाधड़ी और जालसाज़ी जैसे आरोप लगाए गए। मजिस्ट्रेट ने समन जारी कर दिए।
इसके बाद आरोपीगण ने पहली क्वैशिंग याचिका (क्रिमिनल ओरिजिनल पिटीशन संख्या 14186/2019) दायर की, जिसे 22 दिसंबर 2021 को खारिज कर दिया गया। छह महीने बाद उन्होंने दूसरी क्वैशिंग याचिका (संख्या 16241/2022) दायर की, जिसे मद्रास हाईकोर्ट ने 13 सितंबर 2022 को मंज़ूर कर लिया। इसी आदेश को चुनौती देने के लिए शिकायतकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता (शिकायतकर्ता) की ओर से:
रविकुमार के वकील ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने गंभीर त्रुटि की है क्योंकि दूसरी याचिका उन्हीं आधारों पर आधारित थी जो पहले से उपलब्ध थे। कोई नई परिस्थिति नहीं थी जो दूसरी याचिका को जायज़ ठहराती। यह भी कहा गया कि हाईकोर्ट का आदेश, समकक्ष पीठ के पुराने आदेश की समीक्षा जैसा है, जो CrPC की धारा 362 के तहत पूरी तरह वर्जित है।
उत्तरदाताओं (आरोपीगण) की ओर से:
वहीं आरोपीगण के वकील ने तर्क दिया कि थंजावुर संपत्ति से संबंधित पहले की शिकायत पहले ही खारिज की जा चुकी थी, जो एक नई परिस्थिति है। उन्होंने कहा कि दूसरी याचिका में नए बिंदु उठाए गए थे जो पहली बार प्रभावी रूप से नहीं रखे जा सके थे। इसके अलावा, उन्होंने पूरा विवाद सिविल प्रकृति का बताते हुए आपराधिक प्रक्रिया को दुरुपयोग बताया और कहा कि CrPC की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट के पास इसे रोकने की शक्ति है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मुख्य कानूनी प्रश्न तय किया:
“क्या धारा 482 CrPC के तहत दूसरी क्वैशिंग याचिका उन आधारों पर दाखिल की जा सकती है जो पहले की याचिका दायर करते समय भी उपलब्ध थे?”
पीठ ने पाया कि उत्तरदाताओं द्वारा प्रस्तुत नए आधार “स्वतः अस्थिर” हैं। थंजावुर संपत्ति वाली शिकायत को 9 मार्च 2020 को खारिज किया गया था, जबकि पहली क्वैशिंग याचिका 22 दिसंबर 2021 को खारिज हुई। अतः यह आधार आरोपीगण को पहली याचिका के समय ही उपलब्ध था।
कोर्ट ने कहा,
“पहले से उपलब्ध कोई ज़रूरी आधार/दलील को पहली याचिका में नहीं उठाने से यह अधिकार उत्पन्न नहीं होता कि आरोपी दूसरी याचिका दाखिल कर सके। ऐसा करना पूर्व सामग्री के आधार पर समीक्षा याचिका जैसा होगा।”
कोर्ट ने Bhisham Lal Verma बनाम राज्य उत्तर प्रदेश मामले का हवाला देते हुए दोहराया कि यद्यपि दूसरी याचिका पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है, परंतु उसकी स्वीकार्यता तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
निर्णय में कहा गया:
“अगर बार-बार CrPC की धारा 482 के तहत याचिकाएं दाखिल करने की अनुमति दी गई, तो कोई चतुर अभियुक्त आपराधिक कार्यवाही को अपनी सुविधा और स्वार्थ अनुसार टालता रहेगा। ऐसा दुरुपयोग स्वीकार्य नहीं है।”
पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट का आदेश सीधा-सीधा पूर्व आदेश की समीक्षा है और CrPC की धारा 362 के प्रावधानों का पूर्णतः उल्लंघन है।
Simrikhia बनाम डॉली मुखर्जी व अन्य के फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने दोहराया:
“जहाँ CrPC में कोई विशेष निषेध मौजूद है, वहाँ अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। कोर्ट अपनी ही पूर्व निर्णय की समीक्षा अंतर्निहित शक्तियों के बहाने नहीं कर सकती।”
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट का आदेश “रिकॉर्ड के आधार पर स्पष्ट रूप से अनुचित” है। इसलिए उसने अपील स्वीकार करते हुए 13 सितंबर 2022 का आदेश रद्द कर दिया।
नतीजतन, शिकायत संख्या 1828/2019 को पुनः मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, सईदापेट, चेन्नई के समक्ष बहाल कर दिया गया। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपीगण अपने सभी वैधानिक बचाव उचित मंच पर उचित चरण में उठा सकते हैं।