इलाहाबाद हाईकोर्ट, लखनऊ बेंच ने फैसला सुनाया है कि किसी शिकायत मामले में प्रस्तावित आरोपी को नोटिस तभी जारी किया जाना चाहिए जब शिकायतकर्ता और गवाहों ने शपथ पर अपना बयान दे दिया हो, जैसा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023 की धारा 223 के तहत जरूरी है। कोर्ट ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीजेएम), सीतापुर के 15 अक्टूबर, 2024 के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें आरोपी प्रतीक अग्रवाल को इस कानूनी आवश्यकता को पूरा करने से पहले ही समय से पहले तलब किया गया था।
आवेदन यू/एस 482 संख्या 10390/2024 में फैसला सुनाते हुए, न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि सीजेएम के आदेश ने बीएनएसएस की धारा 223 के तहत व्यक्त प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन किया है, जिससे यह कानूनी रूप से अस्थिर हो गया है।
मामले की पृष्ठभूमि
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यह मामला सीतापुर के कोतवाली पुलिस स्टेशन में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (हत्या) और 328 (ज़हर देकर चोट पहुँचाना) के तहत दर्ज केस क्राइम नंबर 460/2023 से उपजा है। आवेदक प्रतीक अग्रवाल को शुरू में आरोपी के तौर पर नामित किया गया था, लेकिन पुलिस जांच में यह निष्कर्ष निकला कि उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है, जिसके चलते उसे दोषमुक्त करते हुए अंतिम रिपोर्ट पेश की गई।
इसके बाद शिकायतकर्ता ने विरोध याचिका दायर की, जिसे सीजेएम ने बीएनएसएस, 2023 की धारा 210 के तहत शिकायत मामले के तौर पर माना। हालांकि, सीजेएम ने शिकायतकर्ता और गवाहों के शपथ पत्र दर्ज किए बिना ही आरोपी को नोटिस जारी कर दिया, जिसके बाद अग्रवाल ने हाईकोर्ट के समक्ष आदेश को चुनौती दी।
विचारित कानूनी मुद्दे
हाईकोर्ट के समक्ष प्राथमिक कानूनी प्रश्न यह था:
क्या मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता और गवाहों के शपथ-पत्र दर्ज करने से पहले शिकायत मामले में अभियुक्त को नोटिस जारी कर सकता है, जैसा कि बीएनएसएस की धारा 223 के तहत आवश्यक है?
बीएनएसएस, 2023 की धारा 223 में स्पष्ट रूप से कहा गया है:
“शिकायत पर अपराध का संज्ञान लेते समय मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्ता और उपस्थित गवाहों, यदि कोई हो, की शपथ पर जांच करनी चाहिए और ऐसी जांच का सार लिखित रूप में दर्ज करना चाहिए… अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिए बिना मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा।”
धारा 223(1) का प्रावधान आगे स्पष्ट करता है कि संज्ञान लेने से पहले अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने कहा कि सीजेएम ने शिकायतकर्ता और गवाहों के बयान दर्ज करने से पहले अभियुक्त को नोटिस जारी करके प्रक्रियागत त्रुटि की है। न्यायालय ने आपराधिक याचिका संख्या 7526/2024 (श्री बसनगौड़ा आर. पाटिल बनाम श्री शिवानंद एस. पाटिल) में कर्नाटक हाईकोर्ट के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें धारा 223 बीएनएसएस की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि:
1. मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत प्रस्तुत की जाती है।
2. मजिस्ट्रेट को सबसे पहले शिकायतकर्ता और गवाहों की शपथ पर जांच करनी चाहिए।
3. इन बयानों के दर्ज होने के बाद ही आरोपी को नोटिस जारी किया जा सकता है।
हाईकोर्ट ने जोर देकर कहा कि इस प्रक्रिया का पालन किए बिना केवल नोटिस जारी करना गलत है और बीएनएसएस, 2023 का उल्लंघन करता है।
न्यायालय ने कहा:
“जिस क्षण शिकायत दर्ज की जाती है, शिकायतकर्ता का बयान दर्ज किए बिना आरोपी को नोटिस जारी करना प्रक्रियात्मक रूप से दोषपूर्ण है। ऐसा आदेश कानून में टिक नहीं सकता।”
इसके अलावा, अदालत ने स्पष्ट किया कि अभियुक्त को “सुनवाई का अवसर” देना महज औपचारिकता नहीं है, और अभियुक्त को निम्नलिखित प्रदान किया जाना चाहिए:
– शिकायत की एक प्रति
– शपथ पर दर्ज शिकायतकर्ता और गवाहों के बयान
इससे यह सुनिश्चित होता है कि अभियुक्त अदालत में पेश होने से पहले आरोपों से पूरी तरह अवगत है।
हाई कोर्ट का फैसला
कानूनी प्रावधानों और मिसालों पर विचार करने के बाद, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सीजेएम, सीतापुर के 15 अक्टूबर, 2024 के आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि:
सीजेएम को अभियुक्त को कोई भी नोटिस जारी करने से पहले शिकायतकर्ता और गवाहों के बयान शपथ पर दर्ज करने चाहिए।
धारा 223 बीएनएसएस, 2023 के प्रक्रियात्मक आदेश का पालन करते हुए एक नया आदेश पारित किया जाना चाहिए।
हाई कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला:
“आक्षेपित आदेश धारा 223 बीएनएसएस का उल्लंघन करता है और इसे रद्द किया जाता है। सीजेएम, सीतापुर को कानून के अनुसार प्रक्रिया को फिर से करने का निर्देश दिया जाता है।”
आवेदक (प्रतीक अग्रवाल) का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता आयुष सिंह, रुद्र प्रताप सिंह और सुशील कुमार सिंह ने किया।
उत्तर प्रदेश राज्य का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ता (ए.जी.ए.) आलोक कुमार तिवारी ने किया।