सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि यदि ‘प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य’ (ocular evidence) सुसंगत और ठोस हैं, तो वे मेडिकल सबूतों के अभाव पर भी प्रबल होंगे। इसी आधार पर, अदालत ने 4-वर्षीय पीड़िता की मां की “सुसंगत और ठोस” गवाही को “विश्वास जगाने वाला” मानते हुए, प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज एक्ट, 2012 (पॉक्सो एक्ट) के तहत एक व्यक्ति की दोषसिद्धि को बरकरार रखा है।
अदालत ने यह भी कहा कि अभियुक्त को अदालत में देखकर बच्ची का “सदमे से भरा व्यवहार” और उसका भयभीत हो जाना “अपने आप में एक बड़ा संकेत” और “सब कुछ बयां करने वाला” था।
जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की बेंच ने दोषी दिनेश कुमार जलधारी द्वारा दायर अपील (क्रिमिनल अपील नंबर 4732 ऑफ 2025) को आंशिक रूप से स्वीकार किया। बेंच ने पॉक्सो एक्ट की धारा 9(m) और 10 के तहत दोषसिद्धि को तो बरकरार रखा, लेकिन सज़ा को सात साल के कठोर कारावास से घटाकर छह साल कर दिया।
यह अपील छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के 06.03.2025 के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी, जिसने स्पेशल जज (पॉक्सो), कुंकुरी, जिला जशपुर के 18.04.2023 के दोषसिद्धि और सजा के आदेश की पुष्टि की थी।
मामले की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष के अनुसार, यह घटना 15.08.2021 की है। पीड़िता की मां (PW-3) द्वारा दर्ज कराई गई FIR के मुताबिक, उसका पति (PW-2), अपीलकर्ता (दोषी) और एक अन्य व्यक्ति कोयला-लकड़ी लेने के बाद घर लौटे थे।
लगभग 4:30 बजे, जब मां अपीलकर्ता को खाना देने के लिए अंदर गई, तो उसने पाया कि अपीलकर्ता “सिर्फ आधी शॉर्ट (चड्ढा) पहने हुए था और उसकी 4-वर्षीया नाबालिग बेटी के पैरों के पास बैठा था।” जब मां ने उसे टोका, तो अपीलकर्ता “खड़ा हुआ और भाग गया।”
मां (PW-3) ने गवाही दी कि उसने देखा कि “उसकी बेटी के कपड़े अनुचित हो गए थे, और वह दर्द से रो रही थी।” पीड़िता ने अपनी मां को बताया कि “उसे उसके गुप्तांग में दर्द हो रहा था,” और मां ने “बेटी के गुप्तांग को गीला पाया।” बच्ची की जन्मतिथि 13.02.2017 होने के कारण, घटना के समय उसकी उम्र 4 से 5 वर्ष के बीच थी।
ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को पॉक्सो एक्ट की धारा 9(m) और 10 के तहत दोषी ठहराते हुए “सात साल के कठोर कारावास और 2,000/- रुपये के जुर्माने” की सजा सुनाई थी।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता के वकील ने दोषसिद्धि को चुनौती देते हुए मुख्य रूप से यह तर्क दिया कि “घटना की पुष्टि के लिए कोई चश्मदीद गवाह नहीं था” और पीड़िता की मां (PW-3) के बयानों का “स्वतंत्र सबूतों से समर्थन नहीं” होता है। यह भी तर्क दिया गया कि मेडिकल ऑफिसर (PW-6) को “पीड़िता पर किसी बाहरी चोट के निशान नहीं मिले, न ही उसके गुप्तांग से कोई रक्तस्राव” हुआ था। वकील ने यह भी कहा कि “योनि में देखी गई लालिमा पीड़िता द्वारा कपड़ों पर रगड़ने या संक्रमण के कारण हो सकती है,” इसलिए अपीलकर्ता को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए।
अंत में यह दलील दी गई कि “पेनेट्रेशन (प्रवेश) का कोई सुझाव या सबूत नहीं था… इसलिए दोषसिद्धि और सजा उचित नहीं थी।”
इसके विपरीत, छत्तीसगढ़ राज्य के वकील ने दोषसिद्धि और सजा का समर्थन करते हुए कहा कि यह “स्पष्ट तथ्यों, ठोस परिस्थितियों और विश्वसनीय सबूतों पर आधारित” थी।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्यों का विश्लेषण करते हुए पाया कि पीड़िता की मां (PW-3) और पिता (PW-2) की गवाहियां “सुसंगत” (consistent) थीं। बेंच ने PW-3 द्वारा दिए गए विस्तृत विवरण पर ध्यान दिया, जिसमें उसने देखा था कि “उसकी बेटी का अंडरवियर उसके घुटनों तक नीचे था, और फ्रॉक छाती तक ऊपर उठी हुई थी” और उसके पति (PW-2) ने “भागते हुए आरोपी को आंगन के पास एक डंडे से दो बार मारा, लेकिन अपीलकर्ता भागने में सफल रहा।”
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला, “पीड़िता की मां PW-3 द्वारा घटना के बारे में बताए गए विवरण और वृतांत पर अविश्वास करने का कोई ठोस कारण नहीं है।”
मेडिकल साक्ष्यों के संबंध में, कोर्ट ने स्वीकार किया कि डॉ. प्रियंका टोप्पो (PW-6) को “कोई बाहरी चोट के निशान नहीं मिले… और कहा कि किसी भी तरह का रक्तस्राव नहीं हुआ था।” हालांकि, कोर्ट ने स्थापित कानूनी सिद्धांत पर भरोसा जताया और कहा, “यह एक सुस्थापित कानून है कि जहां प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य (ocular evidence) सुसंगत और ठोस हों, वहां मेडिकल साक्ष्य पीछे रह जाएंगे (take a backseat) और भले ही वे प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य की पुष्टि न करते हों, फिर भी प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य को ही प्रबल माना जाएगा।” कोर्ट ने यह भी नोट किया कि मेडिकल जांच में “पीड़िता की योनि में लालिमा” पाई गई थी।
कोर्ट के विश्लेषण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा 4-वर्षीया पीड़िता (PW-1) की गवाही पर केंद्रित था। फैसले में ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को उद्धृत किया गया, जिसमें कहा गया था कि जब अभियुक्त ने अपना मास्क हटाया, तो गवाह (पीड़िता) “डरने लगी और अभियुक्त की तरफ देखा भी नहीं।” अदालत को “पीड़िता को सामान्य करने के लिए” साक्ष्य की रिकॉर्डिंग रोकनी पड़ी। जब कार्यवाही फिर से शुरू हुई, तब भी वह “कोई जवाब नहीं दे रही थी और रो रही थी।”
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी की, “यह तथ्य कि पीड़िता अभियुक्त को देखकर भयभीत अवस्था में थी, अपने आप में एक बड़ा संकेत (pointer in itself) है। PW-1 की गवाही के दौरान की घटनाओं का पूरा क्रम सब कुछ बयां कर रहा था (tale-telling)।” कोर्ट ने आगे कहा, “घटना से संबंधित सदमा जो घटना के बाद भी पीड़िता के साथ बना रहा, उसने 4 साल की बच्ची के इस ‘सदमे से भरे व्यवहार’ (trauma-filled behaviour) के रूप में अपनी गवाही दी।”
पेनेट्रेशन की कमी के संबंध में अपीलकर्ता की दलील पर, कोर्ट ने कहा कि वह “रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों और सबूतों को देखते हुए, इस दलील से प्रभावित नहीं है।”
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि “ऊपर उजागर किए गए साक्ष्य अपराध को स्थापित करते हैं” और निचली अदालतों द्वारा किया गया साक्ष्यों का मूल्यांकन “पूर्णतः कानूनी और उचित था, जिसमें इस अदालत द्वारा किसी भी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।”
बेंच ने “परिणामस्वरूप दोषसिद्धि को बरकरार रखा।”
सजा के सवाल पर, कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता “अब तक लगभग 4 साल और 5 महीने की कैद” काट चुका है। इसे “तथ्यों और परिस्थितियों की समग्रता में” (in the totality of the facts and circumstances) देखते हुए, कोर्ट “सजा को घटाकर अपीलकर्ता को 6 साल का कठोर कारावास” भुगतने का निर्देश देने के लिए इच्छुक हुई।
कोर्ट ने आदेश दिया कि “6000/- रुपये के जुर्माने और जुर्माना न देने पर एक साल के साधारण कारावास की सजा बरकरार रहेगी।”
अपील को “उक्त सीमित सीमा तक आंशिक रूप से स्वीकार” किया गया।




