सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की परिभाषा तय करने वाले फैसले पर लगाई रोक; पर्यावरण प्रभाव के नए सिरे से अध्ययन का आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक अहम कदम उठाते हुए अरावली पहाड़ियों की परिभाषा से जुड़े अपने पिछले महीने के फैसले के अमल पर रोक लगा दी है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि अरावली पर्वत श्रृंखला को परिभाषित करने के लिए तय किए गए मानकों—जिनका सीधा असर खनन गतिविधियों पर पड़ता है—पर नौकरशाहों के बजाय पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा विस्तृत अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) सूर्य कांत, जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने एक स्वतः संज्ञान (suo motu) मामले की सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया। कोर्ट का यह हस्तक्षेप उन व्यापक विरोध प्रदर्शनों और चिंताओं के बीच आया है, जिसमें यह आशंका जताई जा रही थी कि पिछली परिभाषा लागू होने से अरावली के एक बड़े हिस्से से सुरक्षा कवच हट जाएगा और वहां खनन का रास्ता साफ हो जाएगा।

प्रमुख घटनाक्रम

पीठ ने निर्देश दिया कि पिछली समिति की सिफारिशें और उनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष अगले आदेश तक “स्थगित” (abeyance) रहेंगे। कोर्ट ने कहा कि अरावली जैसे संवेदनशील मुद्दे पर नौकरशाहों की बहुतायत वाली समिति की रिपोर्ट पर भरोसा करने के बजाय, अब एक विशेषज्ञ समिति को इन सिफारिशों के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन करना होगा। मामले की अगली सुनवाई 21 जनवरी, 2026 के लिए निर्धारित की गई है।

केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ के समक्ष स्थिति स्पष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि कोर्ट के पिछले आदेशों और सरकार की भूमिका को लेकर कई तरह की भ्रांतियां फैलाई गई हैं। मेहता ने दलील दी कि पिछला फैसला एक गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर आधारित था, जिसे कोर्ट ने स्वीकार किया था।

विवाद की जड़: परिभाषा और उसके खतरे

सुप्रीम कोर्ट का यह रोक आदेश 20 नवंबर के उस फैसले से संबंधित है, जो तत्कालीन सीजेआई बीआर गवई की पीठ ने दिया था। उस फैसले में अरावली के लिए “ऊंचाई-आधारित परिभाषा” (elevation-linked definition) को मंजूरी दी गई थी।

नवंबर के फैसले के मुताबिक, किसी भूभाग को अरावली पहाड़ी मानने के लिए निम्नलिखित शर्तें थीं:

  • ऊंचाई: स्थानीय सतह से 100 मीटर या उससे अधिक।
  • निकटता: दो या दो से अधिक पहाड़ियां एक-दूसरे से 500 मीटर के भीतर होनी चाहिए।
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रिपोर्टों में यह दावा किया गया था कि अगर इस परिभाषा को सख्ती से लागू किया गया, तो अरावली पर्वतमाला का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा खनन के लिए ‘वन’ या ‘संरक्षित क्षेत्र’ की श्रेणी से बाहर हो जाएगा। इससे दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में फैले इस पर्वत तंत्र के नष्ट होने का खतरा पैदा हो गया था।

पृष्ठभूमि

इस विवाद की शुरुआत मई 2024 में हुई थी, जब अवैध खनन से जुड़े एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली रेंज को सही ढंग से परिभाषित करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। कोर्ट ने पाया था कि अलग-अलग राज्यों ने अपनी सुविधानुसार अरावली की अलग-अलग परिभाषाएं अपना रखी हैं।

इसके बाद एक समिति का गठन किया गया, जिसने अक्टूबर में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। समिति ने अरावली के संरक्षण के उपाय सुझाए थे, जिन्हें 20 नवंबर के फैसले में स्वीकार कर लिया गया था। तब कोर्ट का तर्क था कि खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने से अवैध खनन माफिया और अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है। हालांकि, सीजेआई सूर्य कांत की अगुवाई वाली पीठ ने अब पर्यावरण सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए इन मानकों पर दोबारा विचार करने का निर्णय लिया है।

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