सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया। यह धारा सरकार से जुड़े अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच शुरू करने से पहले अनुमति को अनिवार्य बनाती है।
जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने इस मामले में केंद्र सरकार और याचिकाकर्ता जनहित मंच (Centre for Public Interest Litigation) की ओर से पेश हुए अधिवक्ता प्रशांत भूषण की दलीलें सुनीं।
केंद्र ने दी दलील: ईमानदार अधिकारियों की रक्षा के लिए है धारा 17A
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए धारा 17A का मजबूती से बचाव किया। उन्होंने कहा:

“धारा 17A को जिस तरह से गढ़ा गया है, वह निडर शासन की एक और कोशिश है—जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ईमानदार अफसरों को सजा न मिले और बेईमान अफसर बच न पाएं।”
मेहता ने कहा कि अनुमति देने या अस्वीकार करने के फैसले कारण सहित आदेशों के तहत होते हैं और ये आदेश न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं। उन्होंने कहा:
“अंततः ये आदेश न्यायिक जांच के दायरे में आते हैं और संबंधित पक्ष इन्हें चुनौती दे सकते हैं।”
उन्होंने यह भी कहा कि आज के “आक्रामक एक्टिविज़्म” के दौर में जैसे ही अनुमति नहीं मिलती, शिकायतकर्ता RTI दाखिल कर, दस्तावेज़ एकत्र करता है और कोर्ट पहुंच जाता है।
CBI के आंकड़े: 2018 से अब तक 2,395 शिकायतें
जब पीठ ने पूछा कि 2018 में धारा 17A लागू होने के बाद से कितनी भ्रष्टाचार शिकायतें आईं, तो मेहता ने बताया कि CBI के पास कुल 2,395 मामले ऐसे आए, जिनमें प्राथमिक जांच या विवेचना की जरूरत पड़ी।
इनमें से:
- 1,406 मामलों में जांच की अनुमति दी गई
- 989 मामलों में अनुमति अस्वीकार की गई
यानी लगभग 41% मामलों में अनुमति नहीं दी गई।
मेहता ने कहा कि इन अनुमतियों पर बहुत सावधानीपूर्वक निर्णय लिए जाते हैं।
याचिकाकर्ता का आरोप: भ्रष्ट अफसरों को बचाने का तरीका बन गई धारा
प्रशांत भूषण ने सरकार की इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि धारा 17A भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने का औजार बन गई है। उन्होंने पूर्व के एक संवैधानिक पीठ के फैसले का हवाला दिया, जिसमें दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की ऐसी ही एक व्यवस्था को असंवैधानिक करार दिया गया था।
भूषण ने कहा:
“प्राथमिक जांच के स्तर पर कोई गिरफ्तारी, तलाशी या जब्ती नहीं होती। यह सिर्फ यह पता लगाने का तरीका है कि शिकायत में दम है या नहीं। फिर जांच शुरू करने से पहले अनुमति की क्या जरूरत?”
जब भूषण ने कहा कि यदि कोर्ट इस प्रावधान को सही ठहराता है तो यह न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन होगा, तो जस्टिस विश्वनाथन ने तीखी प्रतिक्रिया दी:
“यदि हम आपसे सहमत न हों, तो हम अनुशासन का उल्लंघन कर रहे हैं?”
उन्होंने आगे कहा:
“ऐसा कहना कि या तो मेरा रास्ता अपनाओ या आप अनुचित हो, यह बिल्कुल अनुचित है।”
पीठ ने इससे पहले 5 अगस्त को हुई सुनवाई में भी कहा था कि ऐसा संतुलन जरूरी है जिससे ईमानदारी से काम करने वाले सरकारी अधिकारियों को झूठी शिकायतों से बचाया जा सके और साथ ही भ्रष्ट अधिकारियों को भी न बख्शा जाए।
सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।