सुप्रीम कोर्ट ने धन्या एम बनाम राज्य केरल व अन्य [क्रिमिनल अपील संख्या 2897 ऑफ 2025] में 6 जून 2025 को एक अहम फैसले में ‘केरल असामाजिक गतिविधियों (निवारण) अधिनियम, 2007’ (Kerala Anti-Social Activities (Prevention) Act, 2007) के तहत जारी निवारक नजरबंदी (preventive detention) के आदेश को रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने कहा कि निवारक नजरबंदी एक “कठोर” उपाय है और इसका प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में किया जा सकता है। केवल कानून-व्यवस्था भंग होने के अंदेशे से इसका प्रयोग उचित नहीं माना जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपील केरल हाईकोर्ट के 4 सितंबर 2024 के उस आदेश के विरुद्ध दायर की गई थी, जिसमें हाईकोर्ट ने पलक्कड़ के जिला मजिस्ट्रेट द्वारा 20 जून 2024 को धन्या एम के पति राजेश के विरुद्ध जारी नजरबंदी आदेश को वैध ठहराया था।

राजेश ‘ऋतिका फाइनेंस’ नाम से एक पंजीकृत वित्तीय फर्म चलाते थे। जिला पुलिस प्रमुख की सिफारिश पर उन्हें “कुख्यात गुण्डा” घोषित करते हुए हिरासत में लिया गया। उनके खिलाफ चार आपराधिक मामले दर्ज थे, जिनमें केरल मनी लेंडर्स एक्ट, 1958, केरल अत्यधिक ब्याज अधिनियम, 2012, भारतीय दंड संहिता, और अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धाराएं लगाई गई थीं।
धन्या एम ने केरल हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर अपने पति की नजरबंदी को चुनौती दी थी। याचिका खारिज होने पर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
हाईकोर्ट का निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने नजरबंदी को सही ठहराते हुए कहा:
- आरोपी के बरी होने की संभावना पर विचार करना नजरबंदी प्राधिकारी का काम नहीं है।
- अनुच्छेद 226 के तहत कोर्ट न तो अपील का मंच है और न ही प्रशासनिक निर्णयों की पुनर्समीक्षा करता है।
- सभी प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का पालन किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा:
“निवारक नजरबंदी का प्रावधान राज्य के हाथों में एक असाधारण शक्ति है, जिसका प्रयोग बहुत संयमपूर्वक किया जाना चाहिए। यह किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को पूर्व अपराध की आशंका में सीमित करता है, इसलिए इसका प्रयोग सामान्य रूप से नहीं किया जा सकता।”
न्यायालय ने रेखा बनाम तमिलनाडु राज्य (2011) 5 SCC 244 और मोरतुजा हुसैन चौधरी बनाम नागालैंड राज्य [2025 SCC OnLine SC 502] के हवाले से कहा कि इस प्रकार की हिरासत केवल उन्हीं मामलों में उपयुक्त है जहाँ सार्वजनिक व्यवस्था को ठोस खतरा हो।
‘पब्लिक ऑर्डर’ और ‘लॉ एंड ऑर्डर’ में अंतर
कोर्ट ने इस बात पर बल दिया कि मामले में ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ बाधित होने का कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। इसे स्पष्ट करते हुए कोर्ट ने एसके नज़नीन बनाम तेलंगाना राज्य (2023) 9 SCC 633 और नेनावत बुज्जी बनाम तेलंगाना राज्य [2024 SCC OnLine SC 367] का हवाला दिया:
“पब्लिक ऑर्डर का दायरा सीमित होता है और यह तभी प्रभावित होता है जब अपराध का प्रभाव समाज या समुदाय के बड़े वर्ग पर पड़े। केवल कुछ व्यक्तियों तक सीमित प्रभाव कानून-व्यवस्था का मामला होता है, न कि सार्वजनिक व्यवस्था का।”
जमानत शर्तों के उल्लंघन के आधार पर नजरबंदी उचित नहीं
न्यायालय ने पाया कि राज्य सरकार ने यह तो कहा कि आरोपी ने जमानत की शर्तों का उल्लंघन किया है, लेकिन किसी भी मामले में जमानत रद्द करने की याचिका दाखिल नहीं की गई। कोर्ट ने अमीना बेगम बनाम तेलंगाना राज्य (2023) 9 SCC 587 और विजय नारायण सिंह बनाम बिहार राज्य (1984) 3 SCC 14 को उद्धृत करते हुए कहा:
“निवारक नजरबंदी कानून एक कठोर विधि है और इसका प्रयोग केवल तब किया जाना चाहिए जब सामान्य आपराधिक कानून पर्याप्त न हो। जमानत पर छूटे आरोपी को सिर्फ संदेह के आधार पर हिरासत में नहीं रखा जा सकता।”
अंतिम निर्णय
अदालत ने कहा:
“नजरबंदी आदेश में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है, वे अधिक से अधिक राज्य को संबंधित अदालत में जमानत रद्द कराने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन वे निवारक नजरबंदी जैसे असाधारण उपाय को उचित नहीं ठहराते।”
इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 20 जून 2024 को जारी नजरबंदी आदेश और केरल हाईकोर्ट का निर्णय रद्द कर दिया और अपील स्वीकार कर ली।
मामले का नाम: धन्या एम बनाम राज्य केरल व अन्य