सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वकीलों के विशेषाधिकारों के उल्लंघन और उनके संरक्षण से जुड़ी चिंताओं को उठाने वाली एक याचिका पर केंद्र सरकार, भारतीय बार काउंसिल (BCI) और अन्य पक्षों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने यह नोटिस अधिवक्ता आदित्य गोरे की याचिका पर जारी किया, जिन्होंने वकीलों की सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून – एडवोकेट्स बिल – को 2014 से केंद्र के समक्ष लगातार उठाया है।
पीठ ने याचिका को एक लंबित स्वत: संज्ञान मामले से भी जोड़ दिया, जिसमें जांच एजेंसियों द्वारा वकीलों को केवल कानूनी सलाह देने या मुवक्किल का पक्ष रखने पर समन किए जाने की घटनाओं की जांच की जा रही है।

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता निशांत आर. कटनेश्वरकर ने अदालत को बताया कि गोरे पिछले 11 वर्षों से एडवोकेट्स बिल को लेकर संबंधित प्राधिकरणों और बार काउंसिल से संपर्क करते आ रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि कानून आयोग के समक्ष यह बिल लंबित होने के दौरान गोरे ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया से एडवोकेट्स एक्ट, 1961 की धारा 7 के तहत वकीलों की विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए नियम बनाने की मांग की थी।
याचिका में सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया गया है कि वह एडवोकेट्स एक्ट की धारा 10 के तहत एक समिति के गठन का निर्देश दे, जो वकीलों के अधिकारों की रक्षा के लिए उपाय सुझा सके। धारा 10 अधिनियम के अंतर्गत अनुशासन समिति के अलावा अन्य समितियों के गठन से संबंधित है।
याचिका में कहा गया है कि वकीलों पर बढ़ते हमले और उनकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न केवल उनकी व्यक्तिगत गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं, बल्कि न्याय व्यवस्था की गरिमा और प्रभावशीलता को भी कमजोर करते हैं।
“वकीलों पर हमले न केवल व्यक्तिगत अपमान हैं, बल्कि यह न्याय प्रणाली की कार्यक्षमता को गहरी क्षति पहुंचाते हैं,” याचिका में कहा गया है। इसमें वकीलों को निडर और स्वतंत्र रूप से अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सक्षम बनाने के लिए उनके विशेषाधिकारों की रक्षा को आवश्यक बताया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अब सभी पक्षों से जवाब मांगा है और यह मामला उस स्वत: संज्ञान याचिका के साथ आगे सुना जाएगा, जिसमें वकीलों की भूमिका और विशेषाधिकारों को लेकर व्यापक कानूनी समीक्षा की जा रही है।