अगर एकल जज के आदेश से किसी तीसरे पक्ष का अहित होता है, तो ‘नियम 5’ की बाधा के बावजूद उसकी विशेष अपील विचारणीय है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि एकल जज (Single Judge) के आदेश से किसी ऐसे व्यक्ति के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिसे मामले में पक्षकार नहीं बनाया गया था, तो इलाहाबाद हाईकोर्ट नियमावली, 1952 के अध्याय VIII के नियम 5 (Rule 5) की बाधा “प्राकृतिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों” के आड़े नहीं आ सकती।

न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ (Division Bench) के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक इंट्रा-कोर्ट अपील (विशेष अपील) को पोषणीय (maintainable) न मानते हुए खारिज कर दिया गया था। शीर्ष अदालत ने अपील को बहाल करते हुए हाईकोर्ट को गुण-दोष के आधार पर सुनवाई करने का निर्देश दिया है।

मामले की पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता, अभिषेक गुप्ता को प्रतिवादी संख्या 1, दिनेश कुमार का लाइसेंस रद्द होने के बाद उचित मूल्य की दुकान (राशन की दुकान) आवंटित की गई थी। दिनेश कुमार का लाइसेंस शर्तों के उल्लंघन के आरोप में रद्द किया गया था। दिनेश कुमार ने इस रद्दीकरण और अपीलीय आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक रिट याचिका के माध्यम से चुनौती दी थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस याचिका में अभिषेक गुप्ता (मौजूदा लाइसेंसधारी) को पक्षकार (Party) नहीं बनाया गया था।

10 जून, 2025 को हाईकोर्ट के एकल जज ने रिट याचिका स्वीकार कर ली और रद्दीकरण आदेश को रद्द करते हुए दिनेश कुमार की बहाली का निर्देश दिया।

जब अपीलकर्ता को लगा कि एकल जज के आदेश के कारण उन्हें दुकान खाली करनी पड़ेगी और दिनेश कुमार को जगह देनी होगी, तो उन्होंने हाईकोर्ट की खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की। उनका तर्क था कि उन्हें सुनवाई का मौका दिए बिना उनके हितों के खिलाफ आदेश पारित किया गया है।

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हालांकि, 30 अक्टूबर, 2025 को खंडपीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट नियमावली, 1952 के अध्याय VIII नियम 5 और शित गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (AIR 2010 All 46) के पूर्ण पीठ (Full Bench) के फैसले का हवाला देते हुए अपील को पोषणीय नहीं माना और खारिज कर दिया।

कानूनी मुद्दा

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था: क्या कोई व्यक्ति जो रिट कार्यवाही में पक्षकार नहीं था, लेकिन एकल जज के फैसले से प्रभावित है, वह विशेष अपील दायर कर सकता है? विशेष रूप से तब जब नियम 5 के तहत वैधानिक रोक मौजूद हो।

नियम 5 सामान्यतः एकल जज के उस फैसले के खिलाफ विशेष अपील को रोकता है जो संविधान के अनुच्छेद 226 या 227 के तहत राज्य या केंद्रीय अधिनियमों के तहत सरकार या किसी प्राधिकरण द्वारा पारित अपीलीय/संशोधित आदेशों के संबंध में दिया गया हो।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने नियम 5 और शित गुप्ता मामले में पूर्ण पीठ के निर्णय का गहराई से विश्लेषण किया। कोर्ट ने पाया कि यद्यपि पूर्ण पीठ ने नियम 5 की सही व्याख्या की थी, लेकिन उस मामले में यह प्रश्न नहीं था कि क्या कोई “गैर-पक्षकार” (non-party), जो आदेश से प्रभावित है, अपील करने की अनुमति मांग सकता है। कोर्ट ने कहा कि खंडपीठ का ध्यान इस विशिष्ट पहलू पर नहीं गया।

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नियम 5 और ‘न्याय तक पहुंच’ (Access to Justice)

सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि नियम 5 की व्याख्या “न्याय तक पहुंच” को बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए, न कि उसे रोकने वाली। कोर्ट ने माना कि नियम 5 का उद्देश्य मुकदमेबाजी के स्तरों को सीमित करना है, लेकिन यह उन पक्षकारों पर लागू होता है जिन्होंने मुकदमे में भाग लिया है।

न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता ने निर्णय लिखते हुए कहा:

“हमारे समक्ष मौजूद परिस्थितियों में, नियम 5 द्वारा बनाई गई बाधा को प्राकृतिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों, अर्थात सुनवाई का अधिकार और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार, के आगे झुकना होगा।”

अदालत ने कहा कि जब कोई आदेश किसी ऐसे पक्ष के अधिकारों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है जो एकल जज के समक्ष प्रतिवादी नहीं था, तो नियम 5 की कठोरता लागू नहीं होगी।

नॉन-जॉइंडर (Non-Joinder) का सिद्धांत

कोर्ट ने दोहराया कि आवश्यक पक्षकार को शामिल न करने (Non-joinder) का सिद्धांत रिट कार्यवाही पर भी समान रूप से लागू होता है। कोर्ट ने टिप्पणी की:

“रिट अधिकार क्षेत्र में प्रभावित या आवश्यक पक्षकार को शामिल किए बिना पारित किया गया कोई भी आदेश केवल इसी आधार पर अमान्य होने योग्य है।”

गैर-पक्षकारों के लिए अपील का अधिकार

श्रीमती जतन कंवर गोलचा बनाम गोलचा प्रॉपर्टीज (1971) और पंजाब राज्य बनाम अमर सिंह (1974) के फैसलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने पुष्टि की कि एक गैर-पक्षकार भी ‘लीव टू अपील’ (अपील की अनुमति) के आवेदन के साथ अपील दायर कर सकता है, बशर्ते वह यह साबित करे कि आदेश उसके हितों के लिए हानिकारक है या उसे बाध्य करता है।

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कोर्ट ने ‘ubi jus, ibi remedium’ (जहां अधिकार है, वहां उपचार है) के सिद्धांत का भी उल्लेख किया और कहा:

“न्यायिक कार्यवाही में प्रतिकूल आदेश भुगतने वाले पक्ष को, जिसे नोटिस नहीं दिया गया क्योंकि वह पक्षकार नहीं था, बिना किसी उपचार के नहीं छोड़ा जा सकता।”

फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने 30 अक्टूबर, 2025 के खंडपीठ के फैसले को रद्द कर दिया और अभिषेक गुप्ता की विशेष अपील को बहाल कर दिया।

कोर्ट ने निम्नलिखित निर्देश दिए:

  • हाईकोर्ट की खंडपीठ अपील पर तेजी से सुनवाई करे और उसका निस्तारण करे।
  • यदि आवश्यक पक्षकार को शामिल न करने का आरोप सही पाया जाता है, तो हाईकोर्ट मामले को या तो एकल जज के पास रिमांड कर सकता है या स्वयं गुण-दोष पर निर्णय ले सकता है।

उचित मूल्य की दुकान की स्थिति के संबंध में, कोर्ट ने कहा कि वह वर्तमान में अपीलकर्ता को दुकान चलाने की अनुमति देने का इच्छुक नहीं है। चूंकि एकल जज के आदेश के अनुपालन में दुकान पहले ही प्रतिवादी संख्या 1 को आवंटित की जा चुकी है, इसलिए यह व्यवस्था विशेष अपील के परिणाम के अधीन रहेगी।

केस विवरण:

  • केस का नाम: अभिषेक गुप्ता बनाम दिनेश कुमार व अन्य
  • साइटेशन: 2025 INSC 1406
  • कोरम: न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

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