सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी विवाहित महिला की मौत शादी के सात साल के भीतर संदिग्ध परिस्थितियों में होती है और उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था, तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113B के तहत कानूनी उपधारणा (Statutory Presumption) अनिवार्य रूप से लागू होगी।
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया, जिसके तहत दहेज हत्या के आरोपी पति को जमानत दी गई थी। शीर्ष अदालत ने माना कि हाईकोर्ट ने मामले की गंभीरता और कानून के अनिवार्य प्रावधानों की अनदेखी की है।
क्या है पूरा मामला?
यह अपील मृतक आस्था उर्फ सारिका के पिता योगेंद्र पाल सिंह द्वारा दायर की गई थी। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 9 जनवरी 2025 के आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें आरोपी पति राघवेंद्र सिंह उर्फ प्रिंस को जमानत दे दी गई थी। मामला उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के कोतवाली पुलिस स्टेशन में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A, 304B, 328 और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत दर्ज किया गया था।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, मृतका का विवाह 22 फरवरी 2023 को आरोपी से हुआ था। आरोप है कि शादी के बाद से ही उसे दहेज में ‘फॉर्च्यूनर कार’ की मांग को लेकर प्रताड़ित किया जा रहा था। शादी के महज चार महीने बाद, 5 जून 2023 को संदिग्ध परिस्थितियों में उसकी मृत्यु हो गई। पिता का आरोप था कि मौत से ठीक पहले मृतका ने अपनी बहन को फोन कर बताया था कि उसे जबरन कोई जहरीला पदार्थ खिलाया गया है। बाद में एफएसएल (FSL) रिपोर्ट में एल्यूमीनियम फॉस्फाइड जहर की पुष्टि हुई।
सुप्रीम कोर्ट में दलीलें
अपीलकर्ता (पिता) की ओर से पेश वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113B के तहत दहेज हत्या के मामलों में एक वैधानिक उपधारणा है, जिसे हाईकोर्ट ने नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने कहा कि मृतका के शरीर पर चोट के निशान थे और मेडिकल रिपोर्ट जहर से हत्या की ओर इशारा कर रही थी। इसके बावजूद, जांच में पक्षपात का आरोप लगाते हुए मामले को सीबी-सीआईडी (CB-CID) को सौंपने की बात भी कही गई थी।
दूसरी ओर, आरोपी पति के वकील ने दलील दी कि एफआईआर दर्ज करने में 10 दिन की देरी हुई थी और शुरुआती रिपोर्ट में दहेज की मांग का जिक्र नहीं था। बचाव पक्ष ने यह भी कहा कि जांच में अन्य सह-आरोपियों (सास-ससुर आदि) को क्लीन चिट मिल चुकी है, जिससे यह संभावना कम हो जाती है कि केवल पति ने ही अपराध किया हो। साथ ही, आरोपी के 15 महीने से अधिक समय तक जेल में रहने का हवाला दिया गया।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मृतका की मौत शादी के बहुत ही कम समय (चार महीने) के भीतर हुई है और गवाहों के बयानों में लगातार दहेज की मांग की बात सामने आई है। पीठ ने कहा कि पिता और बहन को दिए गए मृत्यु पूर्व बयान (dying declarations) और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में मिले चोट के निशान आईपीसी की धारा 304B की बुनियादी शर्तों को पूरा करते हैं।
धारा 113B की अनिवार्यता
अदालत ने जोर देकर कहा कि एक बार जब आईपीसी की धारा 304B के तत्व स्थापित हो जाते हैं, तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 113B के तहत आरोपी के खिलाफ उपधारणा “अनिवार्य रूप से” (Inexorably) उत्पन्न होती है। कोर्ट ने कंस राज बनाम पंजाब राज्य (2000) और बैजनाथ बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2017) के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि ऐसी स्थिति में यह साबित करने का भार आरोपी पर आ जाता है कि उसने अपराध नहीं किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर टिप्पणी करते हुए कहा:
“हाईकोर्ट ने इस वैधानिक उपधारणा पर विचार नहीं किया और केवल जमानत के सामान्य सिद्धांतों पर भरोसा किया। यह दृष्टिकोण यूपी राज्य बनाम अमरमणि त्रिपाठी में प्रतिपादित कानून के विपरीत है, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि जमानत देते समय अपराध की गंभीरता और प्रथम दृष्टया सबूतों का मूल्यांकन करना आवश्यक है।”
दहेज प्रथा और समाज पर प्रभाव
फैसले में दहेज की सामाजिक बुराई पर भी कड़ी टिप्पणी की गई। पीठ ने कहा:
“दहेज की सामाजिक बुराई न केवल विवाह की पवित्रता को नष्ट करती है, बल्कि महिलाओं के व्यवस्थित उत्पीड़न को भी बढ़ावा देती है… यह केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी नहीं रह जाती, बल्कि समाज की सामूहिक चेतना का अपमान बन जाती है।”
अदालत ने कहा कि इस तरह के जघन्य अपराधों के सामने “न्यायिक निष्क्रियता” (Judicial Passivity) केवल अपराधियों के हौसले बढ़ाएगी और न्याय प्रशासन में जनता के विश्वास को कमजोर करेगी।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और आरोपी पति राघवेंद्र सिंह की जमानत तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दी। कोर्ट ने आरोपी को तुरंत सरेंडर करने का निर्देश दिया है। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस फैसले की टिप्पणियां केवल जमानत रद्द करने तक सीमित हैं और इसका ट्रायल के गुण-दोष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।




