पश्चिम बंगाल सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों की विधायी क्षमता की जांच नहीं कर सकते, क्योंकि यह अधिकार केवल अदालतों के पास है।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि राज्यपाल का काम केवल सहमति देना है और विधेयक की संवैधानिक वैधता पर रोक लगाने का अधिकार उनके पास नहीं है। पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिंहा और ए.एस. चंदुरकर भी शामिल थे।
सिब्बल ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद से शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि राष्ट्रपति ने संसद द्वारा पारित विधेयक पर रोक लगाई हो, क्योंकि वह जनता की इच्छा का प्रतिबिंब होता है। उन्होंने कहा, “किसी कानून को अदालत में चुनौती दी जा सकती है, लेकिन यह बहुत दुर्लभ मामला होता है कि राज्यपाल यह कहें कि वे सहमति नहीं देंगे और विधेयक रोक देंगे।”

इस पर मुख्य न्यायाधीश गवई ने सवाल किया कि यदि किसी विधेयक में केंद्रीय कानून के साथ टकराव (repugnancy) दिखाई दे, तो क्या राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित नहीं रख सकते? न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने भी कहा कि राज्यपाल केवल “पोस्टमैन” की भूमिका में नहीं रह सकते, न ही वे “सुपर लेजिस्लेटिव बॉडी” हैं, लेकिन उन्हें यह देखने के लिए अपना मस्तिष्क लगाना होगा कि विधेयक में टकराव है या नहीं।
सिब्बल ने जोर देकर कहा कि यदि राज्यपाल सहमति देने में देरी करेंगे तो संवैधानिक संतुलन बिगड़ जाएगा। उन्होंने कहा, “राज्य विधानसभा की संप्रभुता संसद की संप्रभुता जितनी ही महत्वपूर्ण है। क्या राज्यपाल को देरी करने की अनुमति दी जानी चाहिए? संविधान की व्याख्या इस प्रकार होनी चाहिए कि वह काम करने योग्य हो। अदालत को यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई असंगति न बने। ‘जितनी शीघ्र हो सके’—यहां मुख्य शब्द है। इसमें तात्कालिकता का तत्व है, यह जनता की इच्छा है।”
यह सुनवाई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत की गई राष्ट्रपति संदर्भ का हिस्सा है, जिसमें शीर्ष अदालत से पूछा गया है कि क्या न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर तय समय सीमा में निर्णय लेना होगा।
मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया था कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है और अदालत इससे पीछे नहीं हट सकती, भले ही विवाद राजनीतिक प्रकृति का हो। इससे पहले, पीठ ने चिंता जताई थी कि अगर राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों पर सहमति टालते रहे तो क्या इसका मतलब यह होगा कि यहां तक कि मनी बिल (Money Bill) भी रोके जा सकते हैं।
कुछ भाजपा शासित राज्यों ने राज्यपाल और राष्ट्रपति की स्वतंत्रता का बचाव करते हुए कहा है कि कानून पर सहमति देने के लिए अदालत दबाव नहीं डाल सकती और यह भी कि “न्यायपालिका हर समस्या की दवा नहीं हो सकती।”