सुप्रीम कोर्ट ने सजा संबंधी कानून के तहत एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि जिसे “बिना रिमिशन के एक निश्चित अवधि” (जैसे 20 वर्ष) की आजीवन कारावास की सजा दी गई है, वह अवधि पूरी होते ही दोषी को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में दोषी को सजा में कमी (रिमिशन) के लिए सज़ा पुनरीक्षण बोर्ड (Sentence Review Board) में आवेदन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि नितीश कटारा हत्याकांड के दोषी सुखदेव यादव की 20 वर्ष की निश्चित अवधि वाली सजा पूरी होने के बाद भी हिरासत में रखना “अवैध” है। कोर्ट ने आदेश दिया कि इस फैसले की प्रति सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजी जाए, ताकि ऐसे सभी कैदियों की पहचान कर उन्हें रिहा किया जा सके जो अपनी सजा की अवधि से अधिक समय से जेल में हैं।
मामला क्या था
अपीलकर्ता सुखदेव यादव उर्फ़ पहलवान ने दिल्ली हाईकोर्ट के 25 नवंबर 2024 के आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसकी फरलो की अर्जी खारिज कर दी गई थी। यादव को सत्र न्यायालय ने नितीश कटारा की हत्या के मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 364, 201/34 के तहत दोषी ठहराया था। सह-दोषी विकास यादव और विशाल यादव को भी सजा हुई थी।

ट्रायल कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने 6 फरवरी 2015 को हत्या के अपराध की सजा में संशोधन करते हुए कहा— “आजीवन कारावास, जो 20 वर्ष का वास्तविक कारावास होगा, बिना रिमिशन के, और 10,000 रुपये जुर्माना।” 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखा, बस यह संशोधन किया कि सभी सजाएं साथ-साथ चलेंगी।
वर्तमान कार्यवाही तब शुरू हुई जब फरलो की अर्जी जेल प्रशासन और फिर हाईकोर्ट ने खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट में अपील लंबित रहने के दौरान 9 मार्च 2025 को यादव ने 20 वर्ष की सजा पूरी कर ली थी। इस वजह से मुख्य प्रश्न यह बना कि क्या अवधि पूरी होते ही उसे रिहा किया जाना चाहिए।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ मृदुल ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा दी गई सजा पूरी हो चुकी है, जिसे राज्य ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने कहा कि सजा पूरी होने पर दोषी को तुरंत रिहा करना चाहिए और रिमिशन का सवाल तभी आता है जब सजा पूरी न हुई हो। रिमिशन के लिए अब आवेदन कराना अवैध होगा और इससे कार्यपालिका, न्यायालय के अंतिम आदेश की समीक्षा करेगी, जो अस्वीकार्य है।
वहीं, दिल्ली सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अर्चना पाठक डेव और शिकायतकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अपराजिता सिंह ने तर्क दिया कि यह आजीवन कारावास है और 20 वर्ष न्यूनतम अवधि है। उनके अनुसार, इस अवधि के बाद दोषी को सज़ा पुनरीक्षण बोर्ड में आवेदन करना आवश्यक है, जो रिमिशन देने पर विचार करेगा।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
कोर्ट ने मुख्य प्रश्न तय किया— “क्या कोई दोषी, जिसे बिना रिमिशन के 20 साल की निश्चित अवधि वाली आजीवन कारावास की सजा दी गई है, अवधि पूरी होने पर जेल से रिहाई का हकदार है?”
कोर्ट ने जीवन कारावास की परिभाषा और उसके विकास का उल्लेख किया, विशेषकर स्वामी श्रद्धानंद (2) बनाम कर्नाटक राज्य और यूओआई बनाम वी. श्रीहरन मामलों का हवाला दिया, जिनमें सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को यह अधिकार दिया गया कि वे न्यूनतम अवधि (जैसे 20, 25 या 30 वर्ष) तय कर सकते हैं, जिसमें रिमिशन का लाभ नहीं मिलेगा।
कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के आदेश में “बिना रिमिशन के 20 वर्ष का वास्तविक कारावास” का अर्थ यही है कि यह एक निश्चित अवधि की सजा है। “बिना रिमिशन” का मतलब है कि 20 वर्षों की अवधि में रिमिशन का लाभ नहीं मिलेगा, लेकिन अवधि पूरी होने के बाद रिमिशन लेने की आवश्यकता भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो हाईकोर्ट आदेश में यह स्पष्ट करता।
कोर्ट ने कहा— “सज़ा पुनरीक्षण बोर्ड, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सजा पर पुनर्विचार नहीं कर सकता।”
निर्णय
कोर्ट ने पाया कि यादव की 20 साल की सजा 9 मार्च 2025 को पूरी हो चुकी थी, इसलिए उसके बाद की हिरासत अवैध थी। कोर्ट ने कहा कि उसे 10 मार्च 2025 को रिहा किया जाना चाहिए था और अब फरलो खत्म होने पर भी उसे आत्मसमर्पण नहीं करना होगा, बशर्ते किसी अन्य मामले में वांछित न हो।
कोर्ट ने सिद्धांत स्थापित करते हुए कहा— “जहां भी कोई दोषी अपनी निर्धारित सजा पूरी कर चुका है, उसे तुरंत रिहा किया जाएगा, यदि वह किसी अन्य मामले में वांछित नहीं है। यह अनुच्छेद 21 के तहत उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है।”
अंत में कोर्ट ने आदेश दिया कि इस फैसले की प्रति सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के गृह सचिवों और NALSA को भेजी जाए, ताकि जिन दोषियों ने सजा से अधिक समय जेल में बिताया है, उन्हें तुरंत रिहा किया जा सके।