सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि किसी कर्मचारी को पदोन्नति का कानूनी अधिकार नहीं है, लेकिन यदि वह अयोग्य नहीं है, तो उसे पदोन्नति के लिए विचार किए जाने का अधिकार अवश्य है।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने यह टिप्पणी तमिलनाडु के एक पुलिस कांस्टेबल की याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिसे सब-इंस्पेक्टर के पद पर पदोन्नति के लिए विचार न किए जाने पर आपत्ति थी।
पीठ ने कहा, “यह स्थापित सिद्धांत है कि कर्मचारी को पदोन्नत किए जाने का अधिकार नहीं है, लेकिन जब पदोन्नति की प्रक्रिया हो रही हो और कर्मचारी अयोग्य न हो, तो उसे विचार किए जाने का अधिकार है। इस मामले में यह अधिकार अन्यायपूर्वक नकारा गया है।”
याचिकाकर्ता ने 2002 में सेवा जॉइन की थी और 2019 में विभागीय कोटे के तहत पदोन्नति के लिए पात्र थे। हालांकि, उन्हें 2005 में लगाए गए दंड के आधार पर पदोन्नति के लिए विचार नहीं किया गया। यह दंड उनकी अगली वेतनवृद्धि को एक वर्ष के लिए (बिना संचयी प्रभाव के) स्थगित करने से संबंधित था।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि उक्त दंड 2009 में ही रद्द कर दिया गया था। इसके बावजूद 2019 में संबंधित अधीक्षक ने उन्हें पदोन्नति प्रक्रिया से बाहर कर दिया, जो कोर्ट के अनुसार अनुचित था।
कोर्ट ने कहा, “ऐसी स्थिति में, 2019 में याचिकाकर्ता को पदोन्नति के लिए विचार से वंचित नहीं किया जा सकता था। हम मानते हैं कि उन्हें पदोन्नति के लिए विचार किया जाए, चाहे वह अब ओवरएज हो चुके हों।”
अगर वे पात्र पाए जाते हैं, तो उन्हें 2019 से पदोन्नति दी जाए और उसके साथ सभी लाभ भी प्रदान किए जाएं, क्योंकि पदोन्नति के लिए विचार न किए जाने में उनकी कोई गलती नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के अक्टूबर 2023 के उस आदेश को भी रद्द कर दिया, जिसमें याचिकाकर्ता की अपील खारिज कर दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि वह 20 प्रतिशत विभागीय कोटे के तहत पदोन्नति के लिए योग्य थे और उनका मामला नकारा नहीं जाना चाहिए था।