सुप्रीम कोर्ट ने दूरस्थ क्षेत्रों में MBBS छात्रों पर सेवा बंधन को बताया ‘बंधुआ मजदूरी’ के समान

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को उन राज्यों की नीतियों पर कड़ी टिप्पणी की, जो ऑल इंडिया कोटा से MBBS में दाखिला लेने वाले छात्रों को स्नातक के बाद दूरस्थ क्षेत्रों में सेवा देना अनिवार्य बनाती हैं। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने इन सेवा अनुबंधों की तुलना “बंधुआ मजदूरी” से की।

यह टिप्पणी उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान आई। उत्तराखंड सरकार की वर्ष 2009 की नीति के अनुसार, ऑल इंडिया कोटा के तहत मेडिकल में दाखिला लेने वाले छात्रों को रियायती शुल्क के बदले पांच साल तक “अप्रवेशनीय” और “अत्यंत दुर्गम” क्षेत्रों में सेवा करनी होती है।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने इस नीति की आलोचना करते हुए कहा, “ऑल इंडिया कोटा से चयनित छात्र राज्य कोटा के मुकाबले अधिक मेधावी होते हैं। ऐसे प्रतिभाशाली छात्रों को बंधुआ मजदूर जैसा कैसे माना जा सकता है?”

उत्तराखंड सरकार की ओर से दलील दी गई कि यह सेवा अनुबंध स्वैच्छिक है — जो छात्र अनुबंध पर हस्ताक्षर करते हैं, उन्हें कम फीस देनी होती है, जबकि जो नहीं करते, उन्हें अधिक फीस देनी होती है। इसके अतिरिक्त, सेवा न देने की स्थिति में 30 लाख रुपये का जुर्माना भरने का विकल्प भी है।

हालांकि कोर्ट ने दूरस्थ क्षेत्रों में चिकित्सकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की नीति के उद्देश्य को समझा, लेकिन छात्रों पर भारी जुर्माना और सेवा की अनिवार्यता थोपे जाने की आलोचना की। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने व्यावहारिक समस्याओं की ओर इशारा करते हुए कहा, “अगर तमिलनाडु का कोई छात्र उत्तराखंड में सेवा देगा, तो भाषा और संस्कृति की असंगति से स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।”

सुनवाई के दौरान कोर्ट ने गढ़वाल के एक मेडिकल कॉलेज के 2011 बैच के छात्रों की स्थिति पर भी गौर किया, जिनसे सेवा न देने के कारण 18% ब्याज के साथ अधिक फीस वसूलने का आदेश हाईकोर्ट ने दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने राहत देते हुए ब्याज दर को घटाकर 9% कर दिया और भुगतान के लिए चार सप्ताह की मोहलत दी।

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पीठ ने टिप्पणी की, “अपीलकर्ता छात्र ऐसे मेधावी उम्मीदवार हैं, जिन्होंने ऑल इंडिया परीक्षा के माध्यम से मेरिट पर प्रवेश प्राप्त किया था। भले ही उन्होंने 15 हजार रुपये वार्षिक फीस पर अनुबंध कर लिया हो, लेकिन उस अनुबंध में खुद ही इससे बाहर निकलने का विकल्प दिया गया है — जो हाईकोर्ट के निर्देश के अनुसार 2.20 लाख रुपये वार्षिक शुल्क अदा कर सकता है।”

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