सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति के रेफरेंस पर सुनवाई के दौरान अदालत केवल संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करेगी और राज्यों से जुड़े व्यक्तिगत मामलों में नहीं जाएगी। यह रेफरेंस इस प्रश्न पर है कि क्या अदालत राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति की कार्रवाई के लिए समयसीमा तय कर सकती है।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर भी शामिल हैं, इस मामले की सुनवाई कर रही है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी के तर्कों पर आपत्ति जताई कि यदि वे आंध्र प्रदेश आदि राज्यों के उदाहरण देंगे, तो केंद्र को जवाब दाखिल करना पड़ेगा। इस पर मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा, “हम किसी राज्य—आंध्र प्रदेश, तेलंगाना या कर्नाटक—के व्यक्तिगत उदाहरणों में नहीं जाएंगे, बल्कि केवल संविधान की धाराओं की व्याख्या करेंगे। और कुछ नहीं।”

सिंघवी ने बताया कि कब कोई विधेयक “फॉल थ्रू” हो जाता है। उन्होंने कहा कि यदि राज्यपाल द्वारा पुनर्विचार के लिए लौटाए गए विधेयक को विधानसभा दोबारा पारित नहीं करना चाहती, या अपनी नीति बदल देती है, तो वह विधेयक अपने आप गिर जाता है।
हालाँकि, पीठ ने सवाल किया कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को न तो वापस भेजें और न ही उस पर सहमति दें तो स्थिति क्या होगी। इस पर सिंघवी ने कहा कि ऐसे मामलों में पहले के फैसलों के अनुसार विधेयक गिर जाता है, जब तक कि अनुच्छेद 200 की पहली प्रोवाइज़ो का पालन न हो।
अनुच्छेद 200 राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि वे किसी विधेयक पर हस्ताक्षर करें, रोक दें, उसे पुनर्विचार के लिए लौटाएँ या राष्ट्रपति के पास आरक्षित करें। पहली प्रोवाइज़ो कहती है कि यदि राज्यपाल द्वारा लौटाए गए विधेयक को विधानसभा फिर से पारित करती है, तो राज्यपाल को उस पर अनिवार्य रूप से सहमति देनी होगी।
28 अगस्त को अदालत ने कहा था कि अनुच्छेद 200 में प्रयुक्त शब्द “यथाशीघ्र” का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा यदि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखते हैं। 26 अगस्त को भी पीठ ने पूछा था कि यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति विधेयक पर हस्ताक्षर न करें तो क्या अदालत बेबस बैठी रहे।
बीजेपी शासित राज्यों ने राज्यपाल और राष्ट्रपति की स्वायत्तता का बचाव करते हुए कहा कि “विधेयक पर सहमति अदालत नहीं दे सकती।” वहीं, विपक्ष शासित राज्यों ने तर्क दिया कि समयसीमा तय करना जरूरी है ताकि संवैधानिक गतिरोध न हो। केंद्र ने यह भी कहा कि राज्यों को इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने का अधिकार नहीं कि उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।
मई 2025 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी कि क्या अदालत राष्ट्रपति या राज्यपाल को उनकी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग करते समय समयसीमा का पालन करने का निर्देश दे सकती है।