सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि राज्य द्वारा संचालित भिक्षुक गृह कोई दान–परोपकार नहीं, बल्कि संवैधानिक न्यास (Constitutional Trust) हैं, जिनका प्रशासन संवैधानिक नैतिकता के मूल्यों को प्रतिबिंबित करना चाहिए। अदालत ने इस संबंध में व्यापक दिशानिर्देश जारी करते हुए कहा कि समाज के सबसे वंचित वर्ग के लिए भी गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार पूरी तरह से सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि भिक्षुक गृहों में अमानवीय परिस्थितियाँ केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं हैं, बल्कि यह अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और गरिमा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
“भिक्षुक गृह राज्य का संवैधानिक न्यास है, कोई वैकल्पिक दान–परोपकार नहीं। इसका संचालन संवैधानिक नैतिकता को दर्शाए, जिसमें स्वतंत्रता, गोपनीयता, शारीरिक स्वायत्तता और गरिमामय जीवन की परिस्थितियाँ शामिल हों,” अदालत ने कहा।

यह आदेश दिल्ली के नॉर्थ जिले के लम्पुर भिक्षुक गृह में दूषित पानी पीने से फैले कॉलरा और गैस्ट्रोएन्टेराइटिस के प्रकोप की घटना के बाद दिया गया। अदालत ने इस अवसर पर सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में व्यवस्था सुधार के लिए एक ढांचा तय किया।
अदालत ने निर्देश दिया कि हर नए दाखिल व्यक्ति की 24 घंटे के भीतर चिकित्सकीय जांच अनिवार्य होगी और इसके बाद मासिक स्वास्थ्य परीक्षण किया जाएगा। सभी गृहों में रोग निगरानी प्रणाली और आपात चेतावनी तंत्र स्थापित किए जाएंगे। पीने योग्य पानी, कार्यशील शौचालय, उचित ड्रेनेज व्यवस्था, कीट नियंत्रण और स्वच्छता मानक अनिवार्य होंगे।
प्रत्येक भिक्षुक गृह का दो साल में एक बार स्वतंत्र ऑडिट कराया जाएगा। भीड़भाड़ रोकने के लिए गृह की क्षमता से अधिक लोगों को ठहराने की मनाही होगी। सुरक्षित आवास, वेंटिलेशन, खुले स्थान और पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करना राज्यों की जिम्मेदारी होगी। भोजन की गुणवत्ता और पोषण स्तर की नियमित निगरानी के लिए डायटीशियन की नियुक्ति भी अनिवार्य की गई।
अदालत ने आदेश दिया कि सभी गृहों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र शुरू किए जाएँ ताकि कैदियों को कौशल विकास और आत्मनिर्भरता का अवसर मिले। सरकारें एनजीओ और निजी संस्थाओं के सहयोग से रोज़गारपरक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करें।
अदालत ने कहा कि कैदियों को उनके कानूनी अधिकारों के बारे में सरल भाषा में जानकारी दी जाए और राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के पैनल वकील हर तीन माह में भिक्षुक गृह का दौरा कर निःशुल्क कानूनी मदद उपलब्ध कराएँ।
महिला और बच्चों के लिए अलग सुविधा अनिवार्य की गई। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भीख माँगते पाए गए बच्चों को भिक्षुक गृह में नहीं रखा जाएगा, बल्कि उन्हें जुवेनाइल जस्टिस एक्ट, 2015 के तहत बाल कल्याण संस्थानों में भेजा जाएगा।
हर राज्य और केंद्रशासित प्रदेश को निगरानी समिति गठित करनी होगी जिसमें सरकारी विभागों के अधिकारी, स्वास्थ्य विशेषज्ञ और नागरिक समाज के प्रतिनिधि शामिल हों। वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित की जाएगी और बीमारियों व मौतों का रिकॉर्ड रखा जाएगा।
यदि किसी कैदी की मृत्यु लापरवाही, बुनियादी सुविधाओं की कमी या समय पर चिकित्सा न मिलने से होती है, तो राज्य को उचित मुआवज़ा देना होगा और दोषी अधिकारियों के खिलाफ विभागीय या आपराधिक कार्रवाई करनी होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को तीन माह में मॉडल गाइडलाइंस बनाने और अधिसूचित करने का आदेश दिया ताकि सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में एक समान सुधार लागू हो सकें।