दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि तेज़ ट्रायल का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा है, और यह अधिकार कठोर कानूनों जैसे महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) के अंतर्गत भी बना रहता है। न्यायमूर्ति संजीव नरूला ने मनोज मोरखेड़ी अपराध गिरोह के कथित सदस्य अरुण को ज़मानत दी, जो पिछले आठ वर्षों से ट्रायल पूर्ण हुए बिना जेल में बंद था।
अदालत ने कहा कि ट्रायल की अत्यधिक देरी और अरुण की लंबी कैद ने उसकी पैरोल पर रिहाई को प्रभावित किया, जबकि उसे पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक अन्य मामले में पांच वर्ष पहले पैरोल दी थी। चल रहे ट्रायल के कारण अरुण समाज में पुनर्वास और पुनः एकीकरण की दिशा में मिलने वाली सीमित स्वतंत्रता से वंचित रहा।
संविधानिक मूल्यों को रेखांकित करते हुए अदालत ने कहा, “तेज़ ट्रायल का अधिकार, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हमारी न्यायिक व्यवस्था में दृढ़ता से निहित है, उसे केवल इसलिए कम नहीं आंका जा सकता क्योंकि मामला किसी विशेष कानून जैसे MCOCA के अंतर्गत आता है।” राज्य की स्थिति रिपोर्ट से पता चला कि अभियोजन पक्ष के 60 गवाहों में से अब तक केवल 35 की ही गवाही हो पाई है, जो अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन दर्शाती है।
दिल्ली पुलिस द्वारा अरुण को “हार्डकोर अपराधी” कहे जाने के बावजूद, अदालत ने सुप्रीम कोर्ट की उस राय का समर्थन किया कि जब विशेष कानूनों के अंतर्गत ट्रायल में अत्यधिक देरी हो, तो ज़मानत की कड़ी शर्तों को संविधान में प्रदत्त स्वतंत्रता के वादे के अनुसार ढाला जाना चाहिए।