छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में राज्य सरकार के उस अधिकार को बरकरार रखा है जिसके तहत वह नौकरी की प्रकृति के आधार पर दिव्यांगों के लिए आरक्षित पदों को विभिन्न श्रेणियों के बीच बदल सकती है। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायाधीश बिभु दत्ता गुरु की खंडपीठ ने एक रिट अपील को खारिज करते हुए यह स्पष्ट किया कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 (RPwD एक्ट) राज्य को यह शक्ति प्रदान करता है। न्यायालय ने असिस्टेंट प्रोफेसर (वाणिज्य) के पद को दृष्टिबाधित उम्मीदवारों के लिए आरक्षित न करने के राज्य सरकार के फैसले को अवैध मानने से इनकार कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक दृष्टिबाधित उम्मीदवार श्री सरोज क्षेमानिधि द्वारा दायर की गई अपील से संबंधित है, जिन्होंने 9 जून, 2025 के एकल न्यायाधीश के आदेश को चुनौती दी थी। मामला 2019 में छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग (CGPSC) द्वारा असिस्टेंट प्रोफेसर पदों के लिए जारी विज्ञापन से शुरू हुआ था। श्री क्षेमानिधि ने वाणिज्य विषय के लिए लिखित परीक्षा पास कर ली थी, लेकिन अंतिम चयन सूची में जगह नहीं बना पाए। उन्होंने विज्ञापन को इस आधार पर चुनौती दी कि इसमें दृष्टिबाधित और अल्प-दृष्टि वाले उम्मीदवारों के लिए 2% आरक्षण का प्रावधान नहीं किया गया था, जो कि उनके अनुसार 2014 की भर्ती से एक अलग और उनके अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कदम था।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता श्री क्षेमानिधि ने व्यक्तिगत रूप से बहस करते हुए कहा कि यह बहिष्करण मनमाना था और संविधान के अनुच्छेद 16(1) के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

वहीं, छत्तीसगढ़ राज्य की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री वाई. एस. ठाकुर ने तर्क दिया कि पदों का आरक्षण नियोक्ता के विवेकाधिकार का विषय है। राज्य ने यह निर्धारित किया था कि वाणिज्य में असिस्टेंट प्रोफेसर के कर्तव्यों में “अंकों और आंकड़ों का बहुत अधिक लेखन कार्य” शामिल है, जो दृष्टिबाधित व्यक्तियों के लिए उपयुक्त नहीं था। परिणामस्वरूप, उस पद पर आरक्षण ‘एक हाथ’ (OA) और ‘एक पैर’ (OL) श्रेणियों के उम्मीदवारों को आवंटित किया गया था। राज्य ने यह भी तर्क दिया कि चूंकि श्री क्षेमानिधि ने बिना किसी विरोध के चयन प्रक्रिया में भाग लिया था, इसलिए उन्हें बाद में इसे चुनौती देने से विबंधित (estopped) किया जाना चाहिए।
न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष
खंडपीठ ने अपने विश्लेषण को RPwD अधिनियम, 2016 की धारा 34 पर केंद्रित किया। न्यायालय ने इस धारा के परंतुक (proviso) पर प्रकाश डाला, जो स्पष्ट रूप से “समुचित सरकार” को पांच निर्दिष्ट दिव्यांग श्रेणियों के बीच रिक्तियों का आदान-प्रदान करने की अनुमति देता है, यदि किसी प्रतिष्ठान में काम की प्रकृति किसी विशेष श्रेणी के लिए पद को अनुपयुक्त बनाती है।
न्यायालय ने पाया कि राज्य सरकार ने अपनी वैधानिक शक्ति के भीतर काम किया। फैसले में कहा गया:
“अधिनियम, 2016 की धारा 34 का परंतुक समुचित सरकार की पूर्व स्वीकृति से 5 श्रेणियों के भीतर पद का आदान-प्रदान करने का प्रावधान करता है। राज्य सरकार ने VH (दृष्टिबाधित) उम्मीदवार को होने वाली संभावित कठिनाई को ध्यान में रखते हुए वाणिज्य संकाय के लिए OA (एक हाथ) और OL (एक पैर) श्रेणी के लिए आरक्षण पहले ही प्रदान कर दिया है। …इसलिए, प्रतिवादी संख्या 2 की कार्रवाई को VH दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के लिए आरक्षण प्रदान नहीं करने के लिए त्रुटिपूर्ण या अवैध नहीं पाया जा सकता है…”
पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले मदन लाल बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य का हवाला देते हुए विबंधन के सिद्धांत को भी बरकरार रखा। न्यायालय ने स्थापित कानून को दोहराया कि जो उम्मीदवार एक “सोचा-समझा मौका” लेकर चयन प्रक्रिया में भाग लेता है, वह प्रतिकूल परिणाम मिलने पर उसकी निष्पक्षता को चुनौती नहीं दे सकता।
“यह अब सुस्थापित है कि यदि कोई उम्मीदवार एक सोचा-समझा मौका लेता है और साक्षात्कार में उपस्थित होता है, तो केवल इसलिए कि साक्षात्कार का परिणाम उसके लिए संतोषजनक नहीं है, वह पलटकर यह तर्क नहीं दे सकता कि साक्षात्कार की प्रक्रिया अनुचित थी,” न्यायालय ने उद्धृत किया।
निर्णय
अंत में, हाईकोर्ट ने रिट याचिका को पहले खारिज किए जाने के फैसले में कोई अवैधता या क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटि नहीं पाई। न्यायालय ने माना कि RPwD अधिनियम द्वारा राज्य को विभिन्न दिव्यांग श्रेणियों के लिए पदों की उपयुक्तता पर एक तर्कपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार है। रिट अपील को “गुण-दोष रहित” होने के कारण खारिज कर दिया गया।