आपराधिक मामलों में भी लागू होता है रेस जुडिकाटा सिद्धांत; पूर्ववर्ती निष्कर्ष बाद की कार्यवाही में भी पक्षकारों को बाध्य करता है: सुप्रीम कोर्ट

 जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने हाल ही में अपने एक निर्णय में स्पष्ट किया कि रेस जुडिकाटा का सिद्धांत आपराधिक मामलों में भी लागू होता है, और यदि किसी सक्षम आपराधिक न्यायालय ने किसी मुद्दे पर निर्णय दे दिया है, तो वह निर्णय उसी मुद्दे से संबंधित बाद की कार्यवाहियों में पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है। यह फैसला एक कंपनी निदेशक द्वारा दायर आपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए सुनाया गया, जिसमें आईपीसी की धारा 420 के तहत चल रही कार्यवाही को निरस्त कर दिया गया क्योंकि संबंधित मुद्दे पर पहले ही एन.आई. एक्ट की धारा 138 के अंतर्गत निर्णय हो चुका था।

मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता एस.सी. गर्ग रुचिरा पेपर्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक थे, जिनका उत्तरदाता आर.एन. त्यागी की फर्म, आईडी पैकेजिंग से व्यवसायिक लेनदेन था। इस लेनदेन के दौरान त्यागी ने 11 चेक जारी किए, जिनमें से 7 अनादृत हो गए। इसके बाद रुचिरा पेपर्स लिमिटेड ने त्यागी के खिलाफ नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज कराई।
त्यागी ने अपने बचाव में कहा कि संबंधित देनदारियां पहले ही डिमांड ड्राफ्ट के जरिए चुकता कर दी गई थीं, लेकिन यह बचाव ट्रायल मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायालय दोनों द्वारा खारिज कर दिया गया और त्यागी को दोषी करार देकर जुर्माना लगाया गया।

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इन कार्यवाहियों के दौरान ही त्यागी ने धारा 156(3) सीआरपीसी के तहत शिकायत दायर कर गर्ग पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया, जिसके आधार पर आईपीसी की धारा 420 के तहत वर्ष 1998 में एफआईआर दर्ज की गई। आरोप था कि गर्ग ने डिमांड ड्राफ्ट के जरिए राशि प्राप्त करने के बावजूद चार चेक भुना लिए। एफआईआर में कंपनी को आरोपी नहीं बनाया गया था।

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गर्ग द्वारा धारा 482 सीआरपीसी के तहत कार्यवाही निरस्त करने की याचिका हाईकोर्ट में खारिज हो गई, जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।

सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन: आपराधिक मामलों में रेस जुडिकाटा
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धोखाधड़ी के आरोप जिस मुद्दे पर आधारित थे, उस पर पहले ही एन.आई. एक्ट की धारा 138 के तहत कार्यवाही में निष्कर्ष निकल चुका था, जिसमें यह माना गया कि डिमांड ड्राफ्ट्स से अनादृत चेक की देनदारियां समाप्त नहीं हुई थीं।

पीठ ने Pritam Singh v. State of Punjab, Bhagat Ram v. State of Rajasthan, तथा State of Rajasthan v. Tarachand Jain के संदर्भ में कहा:
“यह स्पष्ट है कि एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत सक्षम आपराधिक न्यायालय द्वारा दोनों पक्षों के बीच दिए गए निष्कर्ष, उसी मुद्दे से संबंधित बाद की कार्यवाहियों में दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होंगे।”

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पीठ ने Devendra v. State of U.P. तथा Muskan Enterprises v. State of Punjab जैसे मामलों में व्यक्त भिन्न मतों को इस आधार पर अलग बताया कि वे मामले धारा 482 सीआरपीसी के तहत दूसरी याचिकाओं की तकनीकी स्वीकार्यता से जुड़े थे, न कि किसी मुद्दे के अंतिम निपटान से।

कंपनी को आरोपी न बनाना अभियोजन के लिए घातक
कोर्ट ने यह भी माना कि गर्ग को व्यक्तिगत रूप से अभियोजित नहीं किया जा सकता था जब कंपनी को आरोपी नहीं बनाया गया था और गर्ग के विरुद्ध कोई विशिष्ट व्यक्तिगत आरोप भी नहीं था।

अनीता हाडा बनाम गॉडफादर ट्रैवल्स एंड टूर्स प्रा. लि. तथा डेल डी’सूजा बनाम भारत सरकार के मामलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने दोहराया:
“धारा 141 एनआई एक्ट के तहत अभियोजन जारी रखने के लिए कंपनी को आरोपी बनाना आवश्यक है।”
जब कंपनी को अभियुक्त नहीं बनाया गया है, तो उसके निदेशक पर व्यतिक्रमिक उत्तरदायित्व आरोपित नहीं किया जा सकता।

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अंतिम निर्णय
इन सभी कारणों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए कार्यवाही को रद्द कर दिया:
“उपरोक्त सभी कारणों के आलोक में, हम यह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि यह मामला अपील स्वीकार करने और आईपीसी की धारा 420 के तहत अपीलकर्ता के विरुद्ध दर्ज आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए उपयुक्त है।”

इस निर्णय के परिणामस्वरूप आपराधिक मामला संख्या 7489/2002 (क्राइम संख्या 13/1998), जो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, गाज़ियाबाद के समक्ष लंबित था, निरस्त कर दिया गया।

मामला: Criminal Appeal No. 438 of 2018 | S.C. Garg बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य
पीठ: जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा

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