अपने ही सिस्टम पर अविश्वास: राजस्थान हाईकोर्ट ने कांस्टेबल को बहाल किया, मनमानी बर्खास्तगी पर कड़ी टिप्पणी

राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कांस्टेबल दिनेश कुमार मीणा की बर्खास्तगी को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने राज्य सरकार के इस निर्णय को “अप्रासंगिक विचारों पर आधारित” बताते हुए कहा कि यह “अपने ही सिस्टम पर अविश्वास” को दर्शाता है। न्यायालय ने आदेश दिया कि मीणा को 30 दिनों के भीतर सेवा में पुनः नियुक्त किया जाए, हालांकि प्रशासन को उनके खिलाफ कानूनी प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही जारी रखने की अनुमति दी गई।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला कांस्टेबल दिनेश कुमार मीणा से जुड़ा है, जिन्हें 7 सितंबर 2020 को पुलिस अधीक्षक, चित्तौड़गढ़ द्वारा सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। यह आदेश राजस्थान सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1958 के नियम 19(ii) के तहत दिया गया था, जो यह अनुमति देता है कि यदि किसी कर्मचारी के खिलाफ जांच करना “व्यावहारिक रूप से संभव नहीं” हो, तो उसे बिना जांच के ही बर्खास्त किया जा सकता है।

मीणा पर एक वाहन को एस्कॉर्ट करने का आरोप था, जिसमें नशीले पदार्थ ले जाए जा रहे थे और जिसे बाद में जब्त कर लिया गया। इस मामले में एफआईआर संख्या 101/2020 दर्ज की गई, लेकिन उन्हें कभी चार्जशीट नहीं किया गया। उनकी बर्खास्तगी के खिलाफ अपीलीय प्राधिकरण ने 10 दिसंबर 2021 को अपील खारिज कर दी, जिसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की।

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कानूनी मुद्दे

इस मामले में कई महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न उठे:

  1. नियम 19(ii) के तहत बर्खास्तगी की वैधता: क्या अधिकारियों को बिना उचित प्रक्रिया का पालन किए कांस्टेबल मीणा को बर्खास्त करने का अधिकार था?
  2. अनुशासनात्मक जांच की आवश्यकता: याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि नियम 1958 के नियम 16 और 17 के तहत अनुशासनात्मक जांच को गलत तरीके से छोड़ दिया गया।
  3. संवैधानिक सुरक्षा का उल्लंघन: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 311(2) के तहत सरकारी कर्मचारियों की मनमानी बर्खास्तगी से सुरक्षा प्रदान की जाती है। कोर्ट ने जांच की कि क्या इन सुरक्षा उपायों का पालन किया गया।
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कोर्ट की टिप्पणियाँ और निर्णय

न्यायमूर्ति दिनेश मेहता ने अपना फैसला सुनाते हुए अधिकारियों के दृष्टिकोण की कड़ी आलोचना की और कहा कि नियम 19(ii) को लागू करने का आधार “अप्रासंगिक” था। कोर्ट ने कहा:

“सिर्फ इस आधार पर कि जांच में अधिक समय लग सकता है, जांच को समाप्त कर देना उचित नहीं है। इसके अलावा, यदि प्रतिवादी यह आशंका जताते हैं कि याचिकाकर्ता जांच को प्रभावित करेगा और सबूतों से छेड़छाड़ करेगा, तो यह उनके अपने सिस्टम पर अविश्वास को दर्शाता है।”

कोर्ट ने आगे कहा कि यदि इस तरह के तर्कों को स्वीकार कर लिया जाए, तो अनुशासनात्मक जांच की पूरी प्रक्रिया ही निरर्थक हो जाएगी।

सबूतों से छेड़छाड़ के मुद्दे पर न्यायालय ने टिप्पणी की:

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“यदि प्रतिवादी यह मानते हैं कि एक कांस्टेबल जांच को प्रभावित कर सकता है और सबूतों से छेड़छाड़ कर सकता है, तो उन्हें अपनी कार्यशैली पर आत्ममंथन करना चाहिए।”

कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि अपीलीय प्राधिकरण यह निर्धारित करने में विफल रहा कि क्या अनुशासनात्मक अधिकारी ने नियम 19(ii) के तहत अपने विवेकाधिकार का उचित रूप से प्रयोग किया था। इसके बजाय, उसने केवल कदाचार की गंभीरता पर ध्यान केंद्रित किया, जो उचित निर्णय का आधार नहीं हो सकता।

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कोर्ट का फैसला

हाईकोर्ट ने मीणा के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए:

  1. 7 सितंबर 2020 की बर्खास्तगी को रद्द कर दिया।
  2. 10 दिसंबर 2021 के अपीलीय आदेश को भी खारिज कर दिया।
  3. मीणा को 30 दिनों के भीतर सेवा में बहाल करने का आदेश दिया।
  4. उन्हें सेवा में होने का दर्जा दिया जाएगा और मध्यवर्ती अवधि के लिए सैद्धांतिक लाभ प्राप्त होंगे।
  5. राज्य सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वे विधि सम्मत प्रक्रिया का पालन करते हुए उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकते हैं।

इसके अलावा, याचिकाकर्ता के वकील ने स्वेच्छा से यह बयान दिया कि मीणा मध्यवर्ती अवधि के लिए वेतन का दावा नहीं करेंगे, ताकि “नो वर्क, नो पे” के सिद्धांत का पालन हो सके।

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