चेक बाउंस मामले में दोषसिद्धि रद्द, राजस्थान हाईकोर्ट ने समझौते के बाद याचिकाकर्ता पर लगाया 7.5% जुर्माना

राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act), 1881 की धारा 138 के तहत चेक अनादरण के एक मामले में याचिकाकर्ता की दोषसिद्धि और सज़ा को रद्द कर दिया है। यह निर्णय दोनों पक्षों के बीच हुए एक समझौते के आधार पर लिया गया। न्यायालय ने याचिकाकर्ता को बरी करते हुए, सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित संशोधित दिशानिर्देशों का पालन करते हुए, चेक राशि का 7.5% जुर्माना लगाया है।

यह फैसला न्यायमूर्ति मुकेश राजपुरोहित ने शमसुद्दीन बनाम राजस्थान राज्य व अन्य के मामले में सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि

मौजूदा आपराधिक पुनरीक्षण याचिका शमसुद्दीन द्वारा निचली अदालतों के दो फैसलों को चुनौती देते हुए दायर की गई थी। पहला फैसला 09.01.2023 को विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (एनआई एक्ट मामले), संख्या-4, उदयपुर द्वारा सुनाया गया था, जिसमें याचिकाकर्ता को धारा 138 के तहत दोषी ठहराते हुए एक वर्ष के साधारण कारावास और 3,00,000 रुपये के जुर्माने की सज़ा सुनाई गई थी। जुर्माना न भरने की स्थिति में एक महीने का अतिरिक्त साधारण कारावास भुगतने का आदेश था।

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इस फैसले के खिलाफ याचिकाकर्ता ने एक अपील दायर की, जिसे विशेष न्यायाधीश, एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) मामले, उदयपुर ने 06.12.2023 के अपने फैसले में खारिज कर दिया था। इन दोनों फैसलों से असंतुष्ट होकर, याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

पक्षकारों की दलीलें

याचिकाकर्ता के वकील, श्री गोपाल सिंह भाटी ने अदालत को बताया कि दोनों पक्षों ने सौहार्दपूर्ण ढंग से विवाद सुलझा लिया है। उन्होंने 08.10.2025 को निष्पादित एक समझौता विलेख प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया था कि शिकायतकर्ता, प्रतिवादी संख्या 2 (मोहम्मद शफी) को पूरी बकाया राशि मिल गई है। इस समझौते और एनआई एक्ट की धारा 147 के प्रावधान, जो ऐसे अपराधों को शमनीय (compoundable) बनाता है, के आधार पर पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करने की प्रार्थना की गई।

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प्रतिवादी संख्या 2 के वकील, श्री अशोक कुमार ने भी समझौते की पुष्टि की और कहा कि चूँकि मामला सुलझ गया है और राशि का भुगतान हो चुका है, इसलिए उन्हें याचिका स्वीकार किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है।

राज्य सरकार की ओर से पेश हुए लोक अभियोजक, श्री एचएस जोधा ने याचिका का विरोध किया, लेकिन वह निजी पक्षों के बीच हुए समझौते के तथ्य को नकार नहीं सके।

न्यायालय का विश्लेषण और तर्क

न्यायमूर्ति मुकेश राजपुरोहित ने “परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 147 के प्रावधानों की भावना” पर विचार किया, जो स्पष्ट रूप से कहती है कि इस अधिनियम के तहत दंडनीय प्रत्येक अपराध, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों के बावजूद, शमनीय होगा।

न्यायालय ने अपने निर्णय का आधार बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक फैसलों का उल्लेख किया। कोर्ट ने दामोदर एस. प्रभु बनाम सैयद बाबुलाल एच (2010) मामले में निर्धारित दिशानिर्देशों का उल्लेख किया, जिसमें अपराध के शमन में देरी करने वाले पक्षों पर लागत लगाने के लिए एक वर्गीकृत योजना स्थापित की गई थी।

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कोर्ट ने मैसर्स मीटर्स एंड इंस्ट्रूमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड व अन्य बनाम कंचन मेहता (2018) मामले का भी हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था:

“i) धारा 138 के तहत अपराध मुख्य रूप से एक दीवानी प्रकृति का दोष है… ii) प्रावधान का उद्देश्य मुख्य रूप से प्रतिपूरक है, दंडात्मक तत्व का उद्देश्य मुख्य रूप से प्रतिपूरक तत्व को लागू करना है, इसलिए शुरुआती स्तर पर शमन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, लेकिन बाद के चरण में उचित मुआवजे के अधीन इस पर रोक नहीं है।”

सबसे महत्वपूर्ण रूप से, हाईकोर्ट ने संजबिज तरी बनाम किशोर एस. बोरकर व अन्य (2025) में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर भरोसा किया, जिसने दामोदर एस. प्रभु मामले के दिशानिर्देशों को संशोधित किया था। हाईकोर्ट ने मुकदमेबाजी के मौजूदा चरण से संबंधित संशोधित दिशानिर्देश को उद्धृत किया:

“(c) इसी तरह, यदि चेक राशि का भुगतान सत्र न्यायालय या हाईकोर्ट के समक्ष पुनरीक्षण या अपील में किया जाता है, तो ऐसा न्यायालय आरोपी द्वारा चेक राशि का 7.5% लागत के रूप में भुगतान करने की शर्त पर अपराध का शमन कर सकता है।”

अंतिम निर्णय

समझौता विलेख, पक्षकारों की दलीलों और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से मार्गदर्शन लेते हुए, हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लिया।

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हालांकि, न्यायालय ने यह भी कहा, “चूंकि समझौता याचिकाकर्ता द्वारा दायर अपील के खारिज होने के बाद हुआ है, इसलिए माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा संजबिज तरी (सुप्रा) मामले में दिए गए निर्णय के आलोक में याचिकाकर्ता पर चेक राशि का 7.5% जुर्माना लगाया जाना उचित है।”

तदनुसार, न्यायालय ने निचली अदालतों द्वारा दी गई दोषसिद्धि और सज़ा को इस शर्त पर रद्द कर दिया कि याचिकाकर्ता एक महीने के भीतर राजस्थान राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, जोधपुर में चेक राशि का 7.5% जमा करेगा। न्यायालय ने निर्देश दिया कि यदि निर्धारित अवधि में राशि जमा नहीं की जाती है, तो याचिका को उचित आदेशों के लिए फिर से सूचीबद्ध किया जाएगा।

याचिकाकर्ता शमसुद्दीन को परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध से बरी कर दिया गया और केंद्रीय कारागार, उदयपुर से उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया गया, बशर्ते कि वह किसी अन्य मामले में वांछित न हों।

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