रेलवे पूर्व निर्धारित मामलों को दोबारा नहीं खोल सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट का पूर्व अस्थायी मजदूरों को मुआवजा देने का आदेश  

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में पूर्व रेलवे अस्थायी मजदूरों की याचिका को खारिज करने के केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) के आदेश को रद्द कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति विकास बुधवार की खंडपीठ ने केंद्र सरकार और उत्तर मध्य रेलवे को याचिकाकर्ताओं को नियमितीकरण देने के बजाय मुआवजा देने का निर्देश दिया है।  

मामले की पृष्ठभूमि  

यह मामला 2005 से जुड़ा है, जब उत्तर मध्य रेलवे ने एक अधिसूचना जारी कर पूर्व अस्थायी मजदूरों को नियमित रोजगार पाने के लिए स्क्रीनिंग परीक्षा में शामिल होने का अवसर दिया था। याचिकाकर्ताओं में स्वर्गीय रमेश चंद्र बारी और अन्य 13 श्रमिक शामिल थे, जिन्होंने 120 दिनों से अधिक समय तक अलग-अलग अवधि में काम किया था। उन्होंने 10 अक्टूबर 2007 से 6 नवंबर 2007 के बीच हुई स्क्रीनिंग परीक्षा में भाग लिया। हालांकि, जब 10 दिसंबर 2007 को परिणाम घोषित किए गए, तो केवल एक उम्मीदवार, अविनाशी प्रसाद, को सफल घोषित किया गया।  

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इससे नाराज होकर याचिकाकर्ताओं ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT), इलाहाबाद बेंच का रुख किया, जिसने 2011 में उनके पक्ष में फैसला सुनाया और रेलवे को परिणाम घोषित करने और सफल उम्मीदवारों को नियमित करने का आदेश दिया। हालांकि, रेलवे ने बार-बार अदालतों के आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया, जिससे कानूनी लड़ाई और लंबी खिंच गई।  

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मामले में मुख्य कानूनी मुद्दे  

इस मामले में निम्नलिखित प्रमुख प्रश्न उठे:  

1. क्या याचिकाकर्ता रेलवे बोर्ड की नीति के तहत नियमितीकरण के पात्र थे?  

2. क्या रेलवे, सुप्रीम कोर्ट के उमा देवी (2006) फैसले का हवाला देकर नियमितीकरण से इनकार कर सकता था, जिसने अनियमित नियुक्त कर्मचारियों के नियमितीकरण पर रोक लगाई थी?  

3. क्या याचिकाकर्ताओं को पूर्व अदालत के आदेशों के आधार पर नियमितीकरण की वैध अपेक्षा थी?  

4. क्या रेलवे अदालत के आदेशों के कार्यान्वयन में देरी कर सकता था और पहले ही तय हो चुके मुद्दों पर नई आपत्तियाँ उठा सकता था?  

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कोर्ट का फैसला  

फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति विकास बुधवार ने कहा कि रेलवे पहले से तय किए गए मामलों को दोबारा खोलकर याचिकाकर्ताओं को उनके हक से वंचित नहीं कर सकता। अदालत ने कहा:  

“एक बार जब याचिकाकर्ताओं की पात्रता से संबंधित आपत्तियों पर फैसला हो गया और उनके पक्ष में आदेश पारित हो गया, तो रेलवे को उन पर फिर से आपत्ति उठाने का कोई अधिकार नहीं था।”  

खंडपीठ ने यह भी उल्लेख किया कि रेलवे बार-बार अपना पक्ष बदलता रहा—पहले उम्र को आधार बनाया, फिर सेवा अवधि को लेकर आपत्ति उठाई, और अंततः 2013 में उन्हें असफल घोषित कर उनकी उपयुक्तता पर सवाल उठाया। अदालत ने पाया कि रेलवे ने कोई नई आपत्ति नहीं उठाई, बल्कि उन्हीं मुद्दों को दोहराया जिन पर पहले ही फैसला हो चुका था।  

नियमितीकरण के बजाय मुआवजा  

हाईकोर्ट ने यह माना कि 2025 तक याचिकाकर्ता नियमितीकरण के लिए निर्धारित आयु सीमा से बाहर हो चुके हैं, जिससे उनकी पुनर्नियुक्ति व्यावहारिक रूप से असंभव हो गई है। लेकिन, लंबे समय तक चली कानूनी लड़ाई को ध्यान में रखते हुए अदालत ने प्रत्येक याचिकाकर्ता और उनके कानूनी उत्तराधिकारियों को 5 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया।  

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अदालत ने कहा:

“रेलवे द्वारा अनुपालन में देरी से याचिकाकर्ताओं को जो अन्याय झेलना पड़ा, उसके लिए उन्हें मुआवजा दिया जाना उचित होगा।”  

कानूनी पक्षकार  

याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता अपर्णा बर्मन, बीरेंद्र कुमार मिश्रा और दीवान सैफुल्लाह खान ने पैरवी की, जबकि केंद्र सरकार और रेलवे की ओर से अधिवक्ता दिलीप कुमार पांडेय, रजनीश कुमार राय और विवेक कुमार राय ने पक्ष रखा।

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