पावर-ऑफ-अटॉर्नी धारक द्वारा बिक्री विलेख पर हस्ताक्षर करने से क्या वह धारा 32(क) के तहत ‘निष्पादक’ माना जाएगा? सुप्रीम कोर्ट ने मामला बड़ी पीठ को सौंपा

सुप्रीम कोर्ट ने इस महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न को बड़ी पीठ के पास भेज दिया है कि क्या पावर-ऑफ-अटॉर्नी धारक, जो अपने प्रिंसिपल (मुख्य पक्ष) की ओर से बिक्री विलेख पर हस्ताक्षर करता है, भारतीय रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1908 की धारा 32(क) के तहत ‘निष्पादक’ (executant) माना जाएगा।

यह मामला सिविल अपील सं. 9497-9501 / 2025 (SLP (C) सं. 6685-6689 / 2023 से उत्पन्न) में जी. कलावती बाई (मृतक) प्रतिनिधियों के माध्यम से बनाम जी. शशिकला (मृतक) प्रतिनिधियों के माध्यम से व अन्य के बीच आया।

मामले की पृष्ठभूमि

विवाद 15 अक्टूबर 1990 को दर्ज एक अपरिवर्तनीय सामान्य पावर-ऑफ-अटॉर्नी की वैधता से जुड़ा है, जिसे रणवीर सिंह और उनकी पत्नी ज्ञानू बाई ने अपने किरायेदार जी. राजेंद्र कुमार के पक्ष में कथित रूप से निष्पादित किया था। इस पावर-ऑफ-अटॉर्नी के आधार पर राजेंद्र कुमार ने 16 नवंबर 1990, 18 जुलाई 1991 और 16 अगस्त 1991 को अपनी पत्नी जी. शशिकला के पक्ष में तीन बिक्री विलेख निष्पादित किए।

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बाद में रणवीर सिंह ने इस पावर-ऑफ-अटॉर्नी के निष्पादन से इनकार कर दिया, जिसके बाद ट्रायल कोर्ट ने यह मुद्दा निर्धारित किया कि क्या राजेंद्र कुमार को विधिवत रूप से पावर-ऑफ-अटॉर्नी धारक नियुक्त किया गया था और क्या उनके द्वारा निष्पादित बिक्री विलेख वैध थे।

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हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण आदेश में ट्रायल कोर्ट को पावर-ऑफ-अटॉर्नी और बिक्री विलेखों की स्वीकार्यता की जांच करने के निर्देश दिए, विशेष रूप से यह देखते हुए कि क्या वे रजिस्ट्रेशन अधिनियम की धारा 32, 33, 34 और 35 की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।

कानूनी संदर्भ और पूर्ववर्ती निर्णय

दलीलों के दौरान पक्षकारों ने सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसले रजनी टंडन बनाम दुलाल रंजन घोष दस्तिदार [(2009) 14 SCC 782] पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि पावर-ऑफ-अटॉर्नी धारक, जिसे दस्तावेज निष्पादित करने का अधिकार है, वह धारा 32(क) के तहत ‘निष्पादक’ बन जाता है और उसे धारा 33 के तहत अलग से प्रामाणिकता (authentication) की आवश्यकता नहीं होती।

हालांकि, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने इस व्याख्या पर असहमति व्यक्त की। कोर्ट ने कहा:

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“पावर-ऑफ-अटॉर्नी धारक बिक्री विलेख जैसे दस्तावेज़ अपने नाम पर नहीं, बल्कि अपने प्रिंसिपल के नाम पर निष्पादित करता है और पावर-ऑफ-अटॉर्नी द्वारा प्रदत्त अधिकार के तहत उसके स्थान पर हस्ताक्षर करता है। इससे वह स्वयं ‘निष्पादक’ नहीं बन जाता।”

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसा एजेंट धारा 32(ग) के तहत आता है और उसे धारा 33, 34 और 35 के तहत निर्धारित प्रमाणीकरण और पहचान की शर्तों को पूरा करना आवश्यक है।

कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय रजिस्ट्रेशन अधिनियम के तहत आंध्र प्रदेश नियमों के अध्याय XI के नियम 49 से 55 तक का विश्लेषण किया, जिसमें यह प्रावधान है कि भले ही पावर-ऑफ-अटॉर्नी पंजीकृत हो, फिर भी उसका प्रमाणीकरण अनिवार्य है।

कोर्ट ने कहा:

“केवल प्रिंसिपल की ओर से दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने से पावर-ऑफ-अटॉर्नी धारक की एजेंट के रूप में स्थिति समाप्त नहीं हो जाती और वह अपने नाम पर ‘निष्पादक’ नहीं बन जाता।”

कोर्ट ने यह भी आगाह किया कि रजनी टंडन की व्याख्या एक असंगत स्थिति पैदा करती है, जिसमें दस्तावेज़ के निष्पादन को कानूनी जांच से छूट मिल जाएगी, जबकि केवल प्रस्तुतिकरण को कठोर जांच से गुजरना पड़ेगा।

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निष्कर्ष और बड़ी पीठ को संदर्भ

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि वह रजनी टंडन में व्यक्त दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो सकती और यह कानूनी मुद्दा बड़ी पीठ द्वारा अंतिम रूप से तय किया जाना चाहिए। आदेश में कहा गया:

“सभी सम्मान के साथ, हम स्वयं को उस दृष्टिकोण से सहमत कराने में असमर्थ हैं, और हमारा विचार है कि इस मुद्दे को संबोधित करना और बड़ी पीठ द्वारा निर्णीत करना आवश्यक है।”

कोर्ट ने रजिस्ट्री को आदेश दिया कि इस अपील को उपयुक्त पीठ के समक्ष शीघ्र सूचीबद्ध करने के लिए माननीय मुख्य न्यायाधीश से आवश्यक आदेश प्राप्त किए जाएं।

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