पुलिस रिपोर्ट को गैर-संज्ञेय मामलों में ‘शिकायत’ माना जा सकता है, लेकिन धारा 195 CrPC की बाध्यता बनी रहती है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने उमाशंकर यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [क्रिमिनल अपील संख्या 439 / 2018] में भारतीय दंड संहिता की धारा 186 और 353 के तहत NGO कार्यकर्ताओं के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति पामिडिघंटम श्रीनिवास और न्यायमूर्ति जॉयमल्या बागची की पीठ ने स्पष्ट किया कि भले ही गैर-संज्ञेय अपराध की पुलिस रिपोर्ट को धारा 2(ड) CrPC के तहत “शिकायत” माना जा सकता है, फिर भी धारा 195 CrPC के तहत आवश्यक कानूनी बाधा समाप्त नहीं होती।

मामले की पृष्ठभूमि:
अपीलकर्ता ‘गुड़िया’ नामक गैर-सरकारी संगठन से जुड़े हैं, जो उत्तर प्रदेश में मानव तस्करी और बाल यौन शोषण के विरुद्ध कार्य करता है। 6 जून 2014 को वाराणसी के एक ईंट भट्ठे पर कथित बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी की शिकायत पर मजिस्ट्रेट के आदेशानुसार श्रम विभाग, पुलिस अधिकारियों तथा अपीलकर्ताओं की टीम ने छापा मारा।

अपीलकर्ताओं का कहना था कि वहां से मजदूरों और बच्चों को पुलिस स्टेशन लाया गया, लेकिन भट्ठा मालिक के हस्तक्षेप से उन्हें वापस ले जाया गया। इस संबंध में उन्होंने जिलाधिकारी को फैक्स भेजकर जानकारी दी।

दूसरी ओर, श्रम प्रवर्तन अधिकारी ने शिकायत दर्ज कराई कि अपीलकर्ताओं ने बिना बयान दर्ज कराए मजदूरों और बच्चों को डंपर में जबरन बैठा लिया और सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाई। इसी आधार पर धारा 186, 353 और 363 IPC (बाद में हटा दी गई) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई।

हाईकोर्ट का निर्णय और सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा:
अपीलकर्ताओं ने आरोपपत्र रद्द करने के लिए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, जिसे यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि मामला विवादित तथ्यों पर आधारित है, जो कि धारा 482 CrPC के अंतर्गत नहीं निपटाए जा सकते।

सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण को खारिज करते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने न तो तथ्यों की समीक्षा की और न ही अपीलकर्ताओं की दलीलों पर विचार किया। अतः न्यायालय ने स्वयं आरोपपत्र और साक्ष्यों की जांच की।

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सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ:

  • आरोपपत्र में ऐसे कोई तथ्य नहीं थे जो यह दर्शाते हों कि अपीलकर्ताओं ने बल प्रयोग किया या कोई धमकी दी जो धारा 353 IPC के अंतर्गत आती हो।
  • अपीलकर्ताओं और अधिकारियों के बीच केवल पूछताछ की विधि को लेकर मतभेद था, न कि सरकारी कार्य में जानबूझकर बाधा डालने की मंशा।
  • श्रम अधिकारियों की शत्रुता अपीलकर्ताओं के प्रति स्पष्ट थी, जो कि आरोपों के पीछे दुर्भावना को दर्शाती है।

वैधानिक बाधाएं:

  1. धारा 155(2) CrPC का उल्लंघन:
    धारा 186 IPC एक गैर-संज्ञेय अपराध है, जिसके लिए प्राथमिकी दर्ज करने से पहले मजिस्ट्रेट की अनुमति आवश्यक थी, जो नहीं ली गई।
  2. धारा 195 CrPC का उल्लंघन:
    धारा 186 के अंतर्गत अभियोजन तभी संभव है जब संबंधित लोक सेवक या उसका उच्चाधिकारी लिखित शिकायत करे। यहां पुलिस रिपोर्ट के आधार पर कार्यवाही की गई, जो कानून के अनुरूप नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 2(ड) CrPC के स्पष्टीकरण का हवाला दिया, जिसके अनुसार गैर-संज्ञेय अपराध की पुलिस रिपोर्ट को शिकायत माना जा सकता है और रिपोर्ट दर्ज करने वाला पुलिस अधिकारी शिकायतकर्ता माना जाएगा। फिर भी न्यायालय ने स्पष्ट किया:

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“धारा 195 CrPC के अंतर्गत जो कानूनी प्रतिबंध है, वह तब भी समाप्त नहीं होता क्योंकि इस कानूनी कल्पना में पुलिस अधिकारी को—not the aggrieved public servant—शिकायतकर्ता माना जाता है।”

न्यायालय ने बी.एन. जॉन बनाम राज्य उत्तर प्रदेश  के निर्णय का हवाला देकर इस दृष्टिकोण की पुष्टि की।


सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन को दुर्भावना से प्रेरित और विधि की प्रक्रिया का दुरुपयोग मानते हुए रद्द कर दिया और अपील को स्वीकार कर लिया।

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