पॉक्सो मामले में दोषसिद्धि के लिए बच्चे की गवाही पर्याप्त, संपुष्टि की आवश्यकता नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि पॉक्सो अधिनियम के तहत किसी मामले में दोषसिद्धि के लिए बाल पीड़िता की एकमात्र गवाही ही पर्याप्त है और इसके लिए किसी अतिरिक्त संपुष्टि (corroboration) की आवश्यकता नहीं है। न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी की पीठ ने एक 7 वर्षीय बच्ची के सुसंगत और विश्वसनीय बयान पर भरोसा करते हुए एक दुकानदार की दोषसिद्धि को बरकरार रखा।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जब कोई अपील स्वयं दोषी द्वारा दायर की जाती है, तो अपीलीय अदालत उसकी सजा को बढ़ा नहीं सकती या उसे किसी ऐसे गंभीर अपराध के लिए दोषी नहीं ठहरा सकती जिससे निचली अदालत ने उसे बरी कर दिया हो।

यह अपील दोषी राजेंद्र सिंह द्वारा तीस हजारी कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के फैसले को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें उसे पॉक्सो एक्ट की धारा 7 और 9 के तहत पांच साल के कठोर कारावास और 30,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी।

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क्या था पूरा मामला?

अभियोजन पक्ष का मामला 1 जुलाई 2016 को 7 वर्षीय पीड़िता की शिकायत पर दर्ज एक प्राथमिकी पर आधारित था। बच्ची ने आरोप लगाया था कि जब वह अपने स्कूल प्रोजेक्ट के लिए फेविकोल खरीदने दोषी की दुकान पर गई, तो दुकानदार राजेंद्र सिंह ने उसे “दुकान के अंदर बुलाया, अपनी गोद में बिठाया, उसके दोनों गालों को चूमा और उसकी योनि में अपनी उंगली डाली।” बच्ची ने तुरंत घर जाकर अपनी माँ को घटना की जानकारी दी, जिसके बाद पुलिस को सूचित किया गया। जांच के बाद, आरोपी के खिलाफ पॉक्सो एक्ट और आईपीसी के तहत आरोप तय किए गए, जिससे उसने इनकार किया।

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दोनों पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता के वकील, श्री साहिल मलिक ने तर्क दिया कि यह मामला मनगढ़ंत था और वास्तव में दोषी और पीड़िता की माँ के बीच एक खराब ‘फेविकोल ट्यूब’ को लेकर झगड़ा हुआ था। बचाव पक्ष ने यह भी दलील दी कि पीड़िता की मेडिकल रिपोर्ट में कोई बाहरी चोट नहीं पाई गई थी।

वहीं, राज्य की ओर से पेश वकील सुश्री शुभी गुप्ता और पीड़िता की ओर से न्याय मित्र (Amicus Curiae) सुश्री उर्वी कुठियाला ने इन दलीलों का खंडन किया। उन्होंने कहा कि घटना की सूचना तुरंत दी गई थी और पीड़िता की मेडिकल जांच में “लेबिया मिनोरा पर लालिमा” पाई गई थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि पीड़िता ने शुरू से अंत तक अपनी बात को सुसंगत रूप से दोहराया है और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के अनुसार, ऐसे मामलों में बाल गवाह के बयान पर भरोसा करने के लिए किसी अन्य सबूत की आवश्यकता नहीं होती है।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

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न्यायमूर्ति ओहरी ने अपने फैसले में कहा कि पीड़िता के बयानों में – चाहे वह पहली शिकायत हो, धारा 164 सीआरपीसी के तहत बयान हो, या अदालत में दी गई गवाही हो – पूरी तरह से निरंतरता थी। अदालत ने ‘पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह स्थापित किया गया था कि यौन उत्पीड़न की पीड़िता का बयान दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त है।

हाईकोर्ट ने निचली अदालत के उस तर्क से असहमति जताई जिसमें उसने दोषी को अधिक गंभीर अपराध (धारा 6 पॉक्सो एक्ट) से बरी कर दिया था। हाईकोर्ट ने कहा कि “बच्ची ने ‘सूसू’ और ‘अंडरवियर’ शब्दों का इस्तेमाल अलग-अलग अर्थों में किया है” और “निजी अंगों पर चोटों का न होना या हाइमन का बरकरार रहना बच्चे की गवाही को झुठला नहीं सकता।”

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हालांकि, इस असहमति के बावजूद, हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह दोषी को उस गंभीर अपराध के लिए दंडित नहीं कर सकती। चूंकि अपील राज्य द्वारा नहीं, बल्कि स्वयं दोषी द्वारा दायर की गई थी, इसलिए सीआरपीसी की धारा 386(बी)(iii) के तहत अदालत की शक्तियां सीमित थीं। अदालत दोषी के लिए स्थिति को और खराब नहीं कर सकती थी।

इन टिप्पणियों के साथ, हाईकोर्ट ने अपील को खारिज कर दिया और निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को बरकरार रखा। अदालत ने दोषी को अपनी शेष सजा काटने के लिए तुरंत हिरासत में लेने का निर्देश दिया।

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