आदेश VII नियम 11 CPC | यदि पूरक समझौता प्रदर्शन की समय सीमा बढ़ाता है तो वाद को सरसरी तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच) ने एक सिविल रिवीजन याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया है कि यदि वादी ने किसी पूरक समझौते (Supplementary Agreement) का हवाला दिया है जो अनुबंध के प्रदर्शन की समय सीमा को संशोधित करता है, तो परिसीमा (Limitation) के आधार पर वाद को प्रारंभिक चरण में खारिज नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में यह तय करना कि वाद समय सीमा से बाधित है या नहीं, कानून और तथ्यों का मिश्रित प्रश्न है, जिसके लिए साक्ष्य की आवश्यकता होती है।

सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश VII नियम 11 के तहत वाद पत्र को खारिज करने की मांग वाली याचिका को निचली अदालत ने अस्वीकार कर दिया था, जिसे हाईकोर्ट ने सही ठहराया है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला मेसर्स एफिल रिक्रिएशन क्लब (प्रा०) लिमिटेड (वादी/विपक्षी) द्वारा देवेंद्र श्रीवास्तव और अन्य (प्रतिवादी/रिविजनिस्ट) के खिलाफ दायर नियमित वाद संख्या 2066/2021 से संबंधित है। वादी ने अनुबंध के विशिष्ट प्रदर्शन (Specific Performance) और स्थायी निषेधाज्ञा की मांग करते हुए यह मुकदमा दायर किया था।

प्रतिवादियों ने सिविल जज (सीनियर डिवीजन), लखनऊ के समक्ष आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत एक आवेदन दायर कर तर्क दिया कि यह मुकदमा परिसीमा कानून (Limitation Act) द्वारा वर्जित है और इसे खारिज किया जाना चाहिए। निचली अदालत ने 6 मई, 2022 को यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि परिसीमा का मुद्दा कानून और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है। इसके खिलाफ प्रतिवादियों ने हाईकोर्ट में रिवीजन याचिका दायर की।

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पक्षों की दलीलें

रिविजनिस्ट (प्रतिवादी) की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता प्रीतीश कुमार और अधिवक्ता अमल रस्तोगी ने तर्क दिया कि मुकदमा स्पष्ट रूप से समय सीमा से बाहर (Time Barred) है। उन्होंने कहा कि पक्षों के बीच 12 दिसंबर, 2012 को एक बिक्री समझौता (Agreement to Sell) हुआ था, जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख था कि बैनामा (Sale Deed) एक वर्ष के भीतर निष्पादित किया जाएगा।

दलील दी गई कि लिमिटेशन एक्ट, 1963 के अनुच्छेद 54 के पहले भाग के तहत तीन साल की समय सीमा दिसंबर 2013 से शुरू हुई और दिसंबर 2016 में समाप्त हो गई। चूंकि मुकदमा 2021 में दायर किया गया, यानी समय सीमा समाप्त होने के पांच साल बाद, इसलिए यह एक “मृत मामला” है जिसे कृत्रिम रूप से जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।

इसके विपरीत, विपक्षी (वादी) की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव मेहरोत्रा ने तर्क दिया कि वाद पत्र को समग्र रूप से पढ़ा जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि हालांकि 2012 का समझौता स्वीकार्य है, लेकिन पक्षों ने बाद में 6 सितंबर, 2013 को एक पूरक समझौता निष्पादित किया था। इस नए समझौते के तहत, वादी ने 24,00,000 रुपये की अतिरिक्त राशि का भुगतान किया और यह सहमति बनी कि जब वादी चाहेगा, तब बैनामा निष्पादित किया जाएगा।

वादी का तर्क था कि प्रतिवादियों ने पहली बार 17 सितंबर, 2021 को नोटिस के माध्यम से बैनामा करने से इनकार किया। इसलिए, यह मामला लिमिटेशन एक्ट के अनुच्छेद 54 के दूसरे भाग के अंतर्गत आता है, जहां समय सीमा इनकार की तारीख से शुरू होती है, जिससे 2021 का मुकदमा समय सीमा के भीतर है।

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कोर्ट का विश्लेषण

जस्टिस जसप्रीत सिंह की बेंच ने आदेश VII नियम 11 सीपीसी के सिद्धांतों को दोहराते हुए कहा कि इस चरण में केवल वाद पत्र में दिए गए कथनों और वादी द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों पर विचार किया जा सकता है। प्रतिवादी के बचाव या उनके दस्तावेजों को नहीं देखा जा सकता।

कोर्ट ने लिमिटेशन एक्ट के अनुच्छेद 54 का विश्लेषण किया, जिसके दो भाग हैं:

  1. पहला भाग: जहां प्रदर्शन के लिए एक तारीख तय की गई हो, वहां लिमिटेशन उस तारीख से शुरू होता है।
  2. दूसरा भाग: जहां ऐसी कोई तारीख तय नहीं है, वहां लिमिटेशन तब शुरू होता है जब वादी को पता चलता है कि प्रदर्शन से इनकार कर दिया गया है।

जस्टिस सिंह ने कहा कि हालांकि मूल समझौते में एक निश्चित तारीख थी, लेकिन वादी ने स्पष्ट रूप से सितंबर 2013 के पूरक समझौते का उल्लेख किया है, जिसने कथित तौर पर मूल समय सीमा को बढ़ा दिया था।

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कोर्ट ने अपने आदेश में कहा:

“क्या वास्तव में पक्षों के बीच पूरक समझौता निष्पादित किया गया था, क्या इसमें परिसीमा की अवधि को बढ़ाने की क्षमता थी… और क्या प्रतिवादियों ने बाद की तारीख में बैनामा निष्पादित करने का आश्वासन दिया था… ये सभी विवादास्पद मुद्दे हैं जिनका पता केवल पक्षों द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद ही लगाया जा सकता है।”

निर्णय

हाईकोर्ट ने माना कि निचली अदालत ने सही निष्कर्ष निकाला है कि परिसीमा का मुद्दा केवल सरसरी तौर पर वाद पत्र को देखकर तय नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वादी द्वारा उठाए गए तथ्यों की सत्यता की जांच ट्रायल के दौरान ही हो सकती है। तदनुसार, सिविल रिवीजन याचिका को खारिज कर दिया गया।

केस का विवरण

  • केस टाइटल: देवेंद्र श्रीवास्तव और अन्य बनाम मेसर्स एफिल रिक्रिएशन क्लब (प्रा०) लिमिटेड
  • केस नंबर: सिविल रिवीजन संख्या 18, 2022
  • जज: जस्टिस जसप्रीत सिंह
  • याचिकाकर्ता के वकील: प्रीतीश कुमार, अमल रस्तोगी, सूर्य प्रकाश
  • विपक्षी के वकील: गौरव मेहरोत्रा, बृजेश कुमार, इशिता यदु, रक्षित राज सिंह, उत्कर्ष श्रीवास्तव
  • न्यूट्रल साइटेशन: 2025:AHC-LKO:84195

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