इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की उस नीति को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है, जिसमें पेंशनर्स को 15 वर्षों तक पेंशन समायोजन (कम्युटेशन) की कटौती जारी रखने की आवश्यकता होती है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पेंशन समायोजन एक स्वैच्छिक योजना है, और सेवानिवृत्त कर्मचारी इसकी शर्तें स्वीकार करने के बाद उसमें बदलाव की मांग नहीं कर सकते।
मामले का निर्णय न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी द्वारा दिए गए इस निर्णय ने यह पुष्टि की कि एक बार पेंशन समायोजन नीति को स्वीकार कर लेने के बाद, यह पेंशनर्स के लिए बाध्यकारी होती है। कोर्ट ने कहा कि यदि इसे स्वेच्छा से स्वीकार किया गया है, तो असुविधा या वित्तीय कठिनाई के आधार पर इसे चुनौती नहीं दी जा सकती।
मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता उत्तर प्रदेश सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के सेवानिवृत्त कर्मचारी थे, जिन्होंने उत्तर प्रदेश सिविल पेंशन समायोजन नियम, 1941 के तहत पेंशन समायोजन योजना का लाभ उठाया था। इस योजना के तहत सरकारी कर्मचारी अपनी पेंशन का एक हिस्सा एकमुश्त राशि के रूप में प्राप्त कर सकते हैं, जिसे उनकी मासिक पेंशन से निर्धारित अवधि तक काटा जाता है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि उनके समायोजित धन की वसूली पहले ही 10 से 12 वर्षों में पूरी हो चुकी थी, फिर भी सरकार 15 वर्षों तक कटौती जारी रख रही थी। उन्होंने इसे मनमाना, अत्यधिक और बिना किसी विधिक आधार के बताया।
प्रमुख याचिकाएँ
- WRIT – A No. 19031/2024: राधेश्याम शुक्ल व अन्य बनाम राज्य सरकार
- WRIT – A No. 1169/2025: अवधेश कुमार व अन्य बनाम राज्य सरकार
- WRIT – A No. 1207/2025: डॉ. कैलाश नारायण त्रिगुणायत बनाम राज्य सरकार
- WRIT – A No. 1378/2025: हकीम सिंह वर्मा व अन्य बनाम राज्य सरकार
याचिकाकर्ताओं का पक्ष रखने वाले अधिवक्ताओं में नवल किशोर मिश्रा, प्रवीन तिवारी, भगवान दत्त पांडेय, राजेश त्रिपाठी और विजय कुमार राय शामिल थे। वहीं, राज्य सरकार की ओर से अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता आशीष कुमार नागवंशी और राजेश कुमार तिवारी ने पक्ष रखा।
कोर्ट के समक्ष प्रमुख कानूनी प्रश्न
- क्या 15 वर्षों की समायोजन कटौती अवधि विधि सम्मत है?
- याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि सरकार के पास इसे 15 वर्षों तक बढ़ाने का कोई विधिक प्रावधान नहीं था।
- क्या सरकार ने याचिकाकर्ताओं से अधिक वसूली की?
- याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि उनकी कटौती 10-12 वर्षों में पूरी हो गई थी, और अतिरिक्त कटौती अनुचित लाभ था।
- क्या अदालत सरकार की पेंशन समायोजन नीति में हस्तक्षेप कर सकती है?
- सरकार का तर्क था कि यह एक वैकल्पिक योजना है, और एक बार इसे स्वीकार करने के बाद इसे चुनौती नहीं दी जा सकती।
कोर्ट का निर्णय और टिप्पणियाँ कोर्ट ने सभी याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि पेंशन समायोजन योजना को स्वीकार करने के बाद इसे चुनौती देने का कोई वैध आधार नहीं है।
न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी ने सुप्रीम कोर्ट और अन्य हाईकोर्ट्स के कई निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें:
- Common Cause बनाम भारत संघ (1987) 1 SCC 142 – यह स्थापित करता है कि पेंशन समायोजन एक स्वैच्छिक विकल्प है और इसमें न्यायिक हस्तक्षेप तब तक नहीं हो सकता जब तक यह मनमाना न हो।
- Forum of Retired IPS Officers बनाम भारत संघ (2019 SCC Online Del 6610) – इसमें कहा गया कि पेंशन से संबंधित नीतियां वित्तीय मुद्दों से जुड़ी होती हैं और यह सरकार के विवेक पर निर्भर करता है।
- Ashok Kumar Agrawal बनाम भारत संघ (2025:AHC:6439-DB) – इस फैसले में भी पेंशन समायोजन को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज की गई थीं।
कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के विलंब से याचिका दायर करने पर भी सवाल उठाए। न्यायमूर्ति शमशेरी ने कहा:
“2008 की अधिसूचना को चुनौती देने के लिए याचिकाकर्ता 2024 में आए, यानी 16 वर्षों बाद। वे शायद अन्य अदालतों से अनुकूल आदेशों की प्रतीक्षा कर रहे थे।”
याचिकाएँ खारिज
कोर्ट ने सभी 26 याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि सरकार की नीति न तो मनमानी है और न ही अनुचित। न्यायालय ने यह भी देखा कि पेंशन से कटौती की गई राशि ₹11,000 से ₹14,000 के बीच थी, जो अत्यधिक नहीं मानी जा सकती। याचिकाकर्ताओं ने कोई वित्तीय कठिनाई या नीति के दुरुपयोग का प्रमाण भी प्रस्तुत नहीं किया।
न्यायालय ने कहा: “पेंशन समायोजन सरकार की नीति का हिस्सा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट समेत कई अदालतों ने वैध ठहराया है। 15 वर्षों की वसूली अवधि को चुनौती देने का कोई वैध आधार नहीं है।”
कोर्ट ने अंतरिम राहत को भी समाप्त कर दिया और रजिस्ट्रार (अनुपालन) को निर्देश दिया कि इस फैसले की एक प्रति उत्तर प्रदेश सरकार के वित्त विभाग के प्रमुख सचिव को भेजी जाए।