बॉम्बे हाईकोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा काट रहे विवेक श्रीवास्तव को पैरोल देकर एक प्रगतिशील कदम उठाया है, ताकि वह अपने बेटे को आगे की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया जाने से पहले विदाई दे सके। एक ऐतिहासिक फैसले में, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि पैरोल को केवल दुख के समय तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि इसमें खुशी के पल भी शामिल होने चाहिए।
मामले की देखरेख कर रही जस्टिस भारती डांगरे और जस्टिस मंजूषा देशपांडे ने इस बात पर जोर दिया कि पैरोल और फरलो के पीछे की मंशा मूल रूप से मानवतावादी है, जिसका उद्देश्य दोषियों के पारिवारिक संबंधों और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखना है। कार्यवाही के दौरान जस्टिस डांगरे ने टिप्पणी की, “अगर दुख बांटने के लिए पैरोल दी जा सकती है, तो इसे खुशी के पलों को साझा करने के लिए भी समान रूप से लागू किया जाना चाहिए।”
2012 के एक हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए श्रीवास्तव ने अपने बेटे की शिक्षा के लिए वित्तीय तैयारियों का प्रबंधन करने के लिए पैरोल मांगी थी, जिसमें ट्यूशन और रहने का खर्च कुल 36 लाख रुपये था। अभियोजन पक्ष के इस तर्क के बावजूद कि पैरोल आम तौर पर आपात स्थितियों के लिए आरक्षित है, अदालत ने भावनात्मक और पारिवारिक जरूरतों के व्यापक दायरे को पहचानते हुए इससे असहमति जताई।
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पीठ ने मामले की अनूठी प्रकृति पर प्रकाश डाला, और बताया कि अपने बेटे की विदाई में शामिल होना न केवल गर्व का क्षण है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण अभिभावकीय कर्तव्य भी है कि उसके बेटे के भविष्य के अवसरों में बाधा न आए।