संतोष देवी बनाम सुंदर [एसएलपी (सिविल) संख्या 12658/2025] में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट, प्रथम अपीलीय न्यायालय और हाईकोर्ट के समवर्ती निर्णयों को बरकरार रखते हुए याचिका खारिज कर दी। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि दीवानी प्रक्रिया संहिता (CPC) की ऑर्डर VII रूल 6 के अनुसार, यदि वादी सीमावधि से छूट चाहती है तो उसे स्पष्ट और ठोस तथ्यों के साथ आधार प्रस्तुत करना होगा; केवल ‘धोखा’ जैसे सामान्य आरोप पर्याप्त नहीं माने जाएंगे।
पृष्ठभूमि:
वादी संतोष देवी ने अतिरिक्त दीवानी न्यायाधीश (सीनियर डिवीजन), गन्नौर की अदालत में सिविल सूट संख्या 310-RBT/2012 दायर की थी। उन्होंने दिनांक 26.05.2008 की बिक्री विलेख संख्या 638 और दिनांक 29.08.2008 के इंतकाल संख्या 5340 को आंशिक रूप से अवैध घोषित करने की मांग की थी, जिसमें प्रतिवादी सुंदर को आधी हिस्सेदारी दी गई थी। साथ ही, उन्होंने जबरन और अवैध रूप से संपत्ति के हक में विलेख निष्पादित करने व उसे रजिस्टर कराने के विरुद्ध अनिवार्य व स्थायी निषेधाज्ञा की प्रार्थना की।
वादी ने दावा किया कि उन्हें बिक्री विलेख की जानकारी मार्च 2010 में मिली और प्रतिवादी ने 8 अक्टूबर 2012 को अंतिम बार उनकी मांग अस्वीकार की।
ट्रायल कोर्ट का निष्कर्ष:
अदालत ने वाद को समय-सीमा में न होने के कारण खारिज कर दिया। वादी की जिरह में यह स्पष्ट हुआ कि उन्होंने स्वयं बिक्री विलेख पर हस्ताक्षर किए और सब-रजिस्ट्रार के समक्ष उपस्थित होकर दस्तावेज की पुष्टि की। वादी एक पढ़े-लिखे संपत्ति दलाल थीं, अतः उनका यह दावा कि उन्होंने केवल अंतिम डेढ़ पंक्ति पढ़ी थी, अविश्वसनीय पाया गया।
कोर्ट ने जनार्दनम प्रसाद बनाम रामदास [(2007) 2 LJR 783] के आधार पर कहा कि बिक्री विलेख को निरस्त करने की मांग की सीमावधि विलेख के पंजीकरण की तिथि से शुरू होती है।
प्रथम अपीलीय अदालत की टिप्पणियां:
प्रथम अपीलीय न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय की पुष्टि की। अदालत ने पाया कि वादी ने दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे और विलेख लेखक, गवाह, तथा विक्रेता ने यह स्वीकार किया कि दस्तावेज की सामग्री सभी पक्षों को पढ़कर सुनाई गई थी। यह भी कहा गया कि वादी द्वारा भुगतान का दावा, जबकि प्रतिवादी को भी मालिकाना हिस्सा दिया गया था, बेनामी लेनदेन निषेध अधिनियम, 1988 की धारा 4 के तहत निषिद्ध था।
इसके अतिरिक्त, अदालत ने स्पष्ट किया कि लिमिटेशन एक्ट की धारा 5, जो अपीलों में विलंब की क्षमा का प्रावधान देती है, दीवानी वादों पर लागू नहीं होती।
हाईकोर्ट का निर्णय:
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने रेगुलर सेकंड अपील संख्या 520/2020 को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वादी और प्रतिवादी, जो दोनों ही प्रॉपर्टी डीलर थे, के बीच पैसे के लेन-देन से बिक्री विलेख में हिस्सेदारी स्वतः प्रभावित नहीं होती। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि ऑर्डर VII रूल 6 CPC केवल एक प्रक्रिया संबंधी प्रावधान है और यह सीमावधि बढ़ाने या छूट देने का साधन नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की विवेचना एवं निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय में हस्तक्षेप से इनकार किया। न्यायालय ने कहा कि एक पंजीकृत दस्तावेज वैध माने जाने का अनुमान रखता है, और उस पर सवाल उठाने वाले पर उसे खंडित करने का भार होता है। प्रेम सिंह बनाम बीरबल [(2006) 5 SCC 353] के हवाले से अदालत ने कहा:
“पंजीकृत दस्तावेज को वैध रूप से निष्पादित मानने का अनुमान होता है… और उसका खंडन करने का दायित्व उस पर आरोप लगाने वाले पर होता है।”
वाद में वादी ने धोखाधड़ी का आरोप लगाया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“केवल ‘धोखाधड़ी’ जैसे सामान्य शब्दों का उपयोग, बिना ठोस तथ्यों के, कानून के अनुसार सीमावधि से छूट का आधार नहीं बन सकता।”
न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता यह साबित नहीं कर सकी कि धोखाधड़ी के कारण उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी नहीं थी या जानबूझकर जानकारी से वंचित रखा गया था। अतः, लिमिटेशन एक्ट की धारा 17 का लाभ उन्हें नहीं दिया जा सकता।
अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने विशेष अनुमति याचिका दिनांक 2 मई 2025 को खारिज कर दी।
मामला: संतोष देवी बनाम सुंदर, विशेष अनुमति याचिका (सिविल) संख्या 12658/2025