दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत एक शिकायत में, किसी कंपनी को अभियुक्त के तौर पर समन करने से इनकार करने वाला निचली अदालत का आदेश, एक विशुद्ध “अंतरिम आदेश” (interlocutory order) नहीं है। इसलिए, ऐसे आदेश के खिलाफ एक आपराधिक रिवीजन याचिका दायर की जा सकती है।
जस्टिस स्वर्णा कांता शर्मा ने एक आपराधिक रिवीजन याचिका की स्वीकार्यता के प्रारंभिक प्रश्न पर निर्णय देते हुए यह माना कि ऐसा आदेश शिकायतकर्ता के मुकदमा चलाने के मौलिक अधिकार को पर्याप्त रूप से प्रभावित करता है और प्रमुख अपराधी के खिलाफ कार्यवाही को समाप्त (foreclose) कर देता है। इसलिए, कोर्ट ने रिवीजन याचिका को सुनवाई योग्य मानते हुए प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया।
मामले की पृष्ठभूमि
मौजूदा आपराधिक रिवीजन याचिका (CRL.REV.P. 1366/2024) याचिकाकर्ता सुजाता पांडा द्वारा दायर की गई थी, जिसमें उन्होंने पटियाला हाउस कोर्ट्स, नई दिल्ली के मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित 12.08.2024 के आदेश को चुनौती दी थी।
यह मामला 2019 के एक शिकायत केस (संख्या 6155/2019) से संबंधित है, जो सुश्री पांडा द्वारा एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दायर किया गया था। याचिका के अनुसार, सुश्री पांडा ने स्वैग मीडिया प्रोडक्शन प्राइवेट लिमिटेड नामक कंपनी में उच्च रिटर्न के आश्वासन पर 4,30,000/- रुपये का निवेश किया था। ब्याज के कुछ आंशिक भुगतान के बाद, कंपनी कथित तौर पर आगे के भुगतान और मूल राशि के पुनर्भुगतान में विफल रही।
यह कहा गया है कि कंपनी ने बाद में 17.12.2018 को 4,76,967/- रुपये की राशि का एक चेक (संख्या 000016) जारी किया, जो उसके खाते से आहरित था। जब इसे भुगतान के लिए प्रस्तुत किया गया, तो यह “अपर्याप्त धनराशि” (insufficient funds) की टिप्पणी के साथ अनादरित (dishonour) हो गया।
याचिकाकर्ता ने अभियुक्त कंपनी के निदेशकों को एक कानूनी मांग नोटिस जारी किया। भुगतान करने में उनकी विफलता पर, उन्होंने शिकायत दर्ज की। प्रारंभ में, केवल निदेशकों को ही अभियुक्त बनाया गया था।
05.01.2024 को, विद्वान मजिस्ट्रेट ने पाया कि कंपनी, स्वैग मीडिया प्राइवेट लिमिटेड, जिसने स्वयं अपराध किया प्रतीत होता है, को मामले में पक्षकार नहीं बनाया गया था। अदालत ने कंपनी को शामिल करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 319 की प्रयोज्यता पर विचार करने का सुझाव दिया।
इसके बाद, याचिकाकर्ता ने कंपनी को शामिल करने के लिए एक संशोधित मेमो दायर किया। इस पर अभियुक्त उदित ओबेरॉय द्वारा आपत्ति उठाई गई, जिसमें यह तर्क दिया गया कि कंपनी पर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत कोई अलग से वैधानिक नोटिस तामील नहीं किया गया था, इसलिए उसके खिलाफ शिकायत सुनवाई योग्य नहीं थी।
निचली अदालत का आक्षेपित आदेश
विद्वान मजिस्ट्रेट ने 12.08.2024 के आक्षेपित आदेश के माध्यम से कंपनी को समन करने से इनकार कर दिया। मजिस्ट्रेट ने माना कि चूंकि कंपनी को कोई कानूनी मांग नोटिस संबोधित या तामील नहीं किया गया था, इसलिए “एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध का एक अनिवार्य घटक अपूर्ण रहा।”
निचली अदालत ने आगे तर्क दिया कि संज्ञान लेने के लिए एनआई एक्ट की धारा 142 के तहत निर्धारित परिसीमा (limitation) समाप्त हो गई थी। हिमांशु बनाम बी. शिवमूर्ति और अन्य एवं पवन कुमार गोयल बनाम यूपी राज्य और अन्य के निर्णयों पर भरोसा करते हुए, मजिस्ट्रेट ने निष्कर्ष निकाला कि धारा 319 Cr.P.C. इस मामले में आकर्षित नहीं होती है और कंपनी को पक्षकार बनाने से इनकार कर दिया।
याचिकाकर्ता की दलीलें
हाईकोर्ट के समक्ष, याचिकाकर्ता के वकील, श्री याजुर भल्ला और श्री आशुतोष तिवारी ने तर्क दिया कि रिवीजन याचिका सुनवाई योग्य थी। उन्होंने दलील दी कि मजिस्ट्रेट का आदेश इंटरलोक्यूटरी नहीं था, “क्योंकि यह अभियुक्त कंपनी पर मुकदमा चलाने के याचिकाकर्ता के अधिकार को निर्णायक रूप से निर्धारित (conclusively determines) करता है।” यह तर्क दिया गया कि यह आदेश पक्षों के मूल अधिकारों और देनदारियों को प्रभावित करता है, इसलिए Cr.P.C. की धारा 397 लागू होगी।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में सबसे पहले इस सवाल का विश्लेषण किया कि क्या यह याचिका Cr.P.C. की धारा 397(2) द्वारा वर्जित थी, जो “इंटरलोक्यूटरी आदेशों” के खिलाफ रिवीजन पर रोक लगाती है।
डॉ. जस्टिस स्वर्णा कांता शर्मा ने उल्लेख किया कि “इंटरलोक्यूटरी आदेश” शब्द को संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। कोर्ट ने अमर नाथ और अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1977) 4 SCC 137 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र किया, जिसने स्पष्ट किया था कि इस शब्द का इस्तेमाल “सीमित अर्थ” (restricted sense) में किया गया है और “यह केवल विशुद्ध रूप से अंतरिम या अस्थायी प्रकृति के आदेशों को दर्शाता है जो पक्षों के महत्वपूर्ण अधिकारों या देनदारियों को तय नहीं करते या उन्हें छूते नहीं हैं।” सुप्रीम कोर्ट ने माना था, “एक आदेश जो अभियुक्त या अभियोजन पक्ष के अधिकारों को पर्याप्त रूप से प्रभावित करता है… उसे इंटरलोक्यूटरी नहीं कहा जा सकता…”
हाईकोर्ट ने मधु लिमये बनाम महाराष्ट्र राज्य (1977) 4 SCC 551 का भी हवाला दिया, जिसने “मध्यवर्ती आदेशों” (intermediate orders) की अवधारणा को स्थापित किया – ऐसे आदेश जो अंतिम नहीं होते, लेकिन विशुद्ध रूप से इंटरलोक्यूटरी भी नहीं होते, और जो पक्षों के अधिकारों को पर्याप्त रूप से प्रभावित करते हैं।
इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, हाईकोर्ट ने पाया कि मजिस्ट्रेट का आदेश दो विशिष्ट निष्कर्षों पर टिका था: कंपनी को कानूनी नोटिस की अनुपस्थिति और परिसीमा अवधि की समाप्ति। कोर्ट ने माना: “इन निष्कर्षों का प्रभाव यह है कि याचिकाकर्ता का कंपनी पर मुकदमा चलाने का अधिकार, जो चेक की आहरकर्ता (drawer) है और धारा 138 के तहत प्रमुख अपराधी है, समाप्त (foreclosed) हो गया है।”
निर्णय में आगे कहा गया है, “इस प्रकार, यह आदेश प्रमुख अभियुक्तों में से एक के खिलाफ कार्यवाही जारी रखने के शिकायतकर्ता के अधिकार को सीधे और अंतिम रूप से निर्धारित करता है, जिससे मुकदमे के क्रम और दायरे पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।”
कोर्ट ने पाया कि यह मामला मोहित बनाम यूपी राज्य (2013) 7 SCC 789 में दिए गए तर्क से पूरी तरह मेल खाता है, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि Cr.P.C. की धारा 319 के तहत एक आवेदन को अस्वीकार करने वाला आदेश इंटरलोक्यूटरी नहीं है क्योंकि यह “मामले में उनकी संलिप्तता के संबंध में अपीलकर्ताओं के अधिकारों और देनदारियों को तय करता है।”
अपना विश्लेषण समाप्त करते हुए, हाईकोर्ट ने माना कि निचली अदालत का आदेश “केवल प्रक्रियात्मक या मुकदमे की प्रगति में सहायक नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा आदेश है जो शिकायतकर्ता के मूल अधिकारों पर निर्णय देता है और उन्हें निर्धारित (adjudicates and determines) करता है।”
यह पाते हुए कि आक्षेपित आदेश को “Cr.P.C. की धारा 397(2) के अर्थ में विशुद्ध रूप से इंटरलोक्यूटरी आदेश नहीं माना जा सकता,” कोर्ट ने फैसला सुनाया कि रिवीजन याचिका सुनवाई योग्य है।
तदनुसार, हाईकोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर लिया और प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया, जिसमें जवाबदेही के लिए 19.02.2026 की तारीख तय की गई है।




