आदेश 23 नियम 3 सीपीसी | पक्षकार को पहले ट्रायल कोर्ट में समझौते को चुनौती देनी चाहिए; सीधे प्रथम अपील करना अनुमेय नहीं : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने, जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले शामिल थे, सकीना सुलतानअली सुनेसरा द्वारा गुजरात हाईकोर्ट के लार्जर बेंच के 28 अगस्त 2019 के निर्णय और 6 सितंबर 2019 के एकल न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ दायर अपीलों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने निर्णय दिया कि जो व्यक्ति पहले से ही मुकदमे में पक्षकार था और जो समझौते को विवादित करता है, उसे पहले सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) के आदेश 23 नियम 3 के प्रावधान के तहत ट्रायल कोर्ट का रुख करना चाहिए, और वह सीधे धारा 96 सीपीसी के तहत प्रथम अपील दाखिल नहीं कर सकता।

मामला पृष्ठभूमि

यह मामला सिद्धपुर, जिला पाटण में स्थित तीन गैर-कृषि भूखंडों से संबंधित विवाद से उत्पन्न हुआ। ये भूमि मूलतः मूसा भाई मूमन के स्वामित्व में थी और बाद में उनकी वारिसों को मिली, जिनमें अपीलकर्ता सकीना सुलतानअली सुनेसरा और अन्य उत्तरदाता शामिल थे।

2007 में, शिया इस्माइली मोमिन जमात (उत्तरदाता संख्या 1) के सदस्यों के साथ एक बिक्री अनुबंध किया गया। आंशिक भुगतान के बाद और 2011 में अनुबंध के निरस्त होने के बाद, कई घटनाएं घटीं, जिनमें अपीलकर्ता द्वारा बिक्री विलेखों का निष्पादन और दीवानी वादों का दाखिला भी शामिल था।

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15 मार्च 2016 और 17 दिसंबर 2016 को समझौते के आधार पर दो सहमति डिक्री पारित की गईं, जिन्हें बाद में अपीलकर्ता ने धोखाधड़ी और नोटिस न मिलने का आरोप लगाते हुए चुनौती दी।

अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट में आदेश 43 नियम 1-ए सीपीसी के तहत आदेशों के खिलाफ अपीलें दायर कीं, जिन्हें लार्जर बेंच के निर्णय के आधार पर खारिज कर दिया गया कि पक्षकार को पहले ट्रायल कोर्ट में समझौते को चुनौती देनी चाहिए।

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अपीलकर्ता के तर्क

वरिष्ठ अधिवक्ता श्री हुजेफा अहमदी ने तर्क दिया कि 1976 के सीपीसी संशोधन के बाद, भले ही आदेश 43 नियम 1(m) के तहत समझौते को रिकॉर्ड करने के आदेश के खिलाफ अपील को हटा दिया गया हो, लेकिन आदेश 43 नियम 1-ए(2) जोड़ा गया था ताकि प्रथम अपील में समझौते को चुनौती दी जा सके।

यह भी तर्क दिया गया कि धारा 96(3) सीपीसी के तहत सहमति डिक्री के खिलाफ अपील पर रोक तब लागू नहीं होती जब स्वयं समझौते के अस्तित्व या वैधता पर विवाद हो।

अपीलकर्ता ने बनवारी लाल बनाम चंदो देवी (1993) 1 एससीसी 581 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि कोई भी पक्ष समझौते को चुनौती देने के लिए ट्रायल कोर्ट में याचिका दाखिल कर सकता है या फिर प्रथम अपील में समझौते की वैधता पर प्रश्न उठा सकता है।

इसके अतिरिक्त, पुष्पा देवी भगत बनाम राजिंदर सिंह (2006) 5 एससीसी 566 और त्रिलोकी नाथ सिंह बनाम अनिरुद्ध सिंह (2020 एससीसी ऑनलाइन एससी 444) के हवाले से कहा गया कि हाईकोर्ट ने इन निर्णयों की सही व्याख्या नहीं की।

उत्तरदाताओं के तर्क

उत्तरदाताओं की ओर से प्रस्तुत किया गया कि एक बार जब समझौते के आधार पर डिक्री पारित हो जाती है तो वह पक्षों को बाध्य करती है और धारा 96(3) सीपीसी के तहत अपील प्रतिबंधित होती है।

यह तर्क भी दिया गया कि केवल ट्रायल कोर्ट के समक्ष आदेश 23 नियम 3 के प्रावधान के तहत आवेदन ही मान्य है।

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उन्होंने पुष्पा देवी भगत (उपर्युक्त) पर भरोसा करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर बल दिया था कि सहमति डिक्री को केवल उसी कोर्ट के समक्ष चुनौती दी जा सकती है जिसने समझौते को रिकॉर्ड किया था।

साथ ही, त्रिलोकी नाथ सिंह (उपर्युक्त) और श्री सूर्य डेवेलपर्स एंड प्रमोटर्स बनाम एन. सैलेश प्रसाद (2022) 5 एससीसी 736 के हवाले से तर्क दिया गया कि पहले ट्रायल कोर्ट में ही चुनौती दी जानी चाहिए।

कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1976 के संशोधनों के माध्यम से सीपीसी में विशेष रूप से वह प्रावधान हटा दिया गया था जो समझौते को रिकॉर्ड करने या अस्वीकार करने के आदेश के खिलाफ अपील की अनुमति देता था और एक सुव्यवस्थित व्यवस्था लागू की गई थी।

कोर्ट ने कहा:

“जो पक्षकार समझौते से इनकार करता है, उसे पहले ट्रायल कोर्ट के समक्ष विवाद उठाना चाहिए (आदेश 23 नियम 3 का प्रावधान)। एक नया वाद अब दायर नहीं किया जा सकता (आदेश 23 नियम 3-ए)। यदि ट्रायल कोर्ट आपत्ति पर निर्णय देता है और आपत्ति करने वाले के खिलाफ डिक्री पारित करता है, तभी धारा 96(1) के तहत प्रथम अपील दायर की जा सकती है।”

कोर्ट ने जोर देकर कहा कि पुष्पा देवी भगत के फैसले ने सही ढंग से कानून का सारांश प्रस्तुत किया है:

“सहमति डिक्री से बचने के लिए एक पक्षकार के पास एकमात्र उपाय यही है कि वह उस कोर्ट के समक्ष जाए जिसने समझौते को रिकॉर्ड किया और डिक्री पारित की।”

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि आदेश 43 नियम 1-ए सीपीसी कोई स्वतंत्र अपील का अधिकार नहीं देता, बल्कि केवल पहले से अनुमेय अपील में समझौते के मुद्दे को उठाने की अनुमति देता है।

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निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि सकीना सुलतानअली सुनेसरा उन वादों में प्रतिवादी थीं जिनसे सहमति डिक्री बनी थी, इसलिए वह आदेश 23 नियम 3 सीपीसी के तहत निर्धारित अनिवार्य प्रक्रिया को दरकिनार नहीं कर सकतीं।

कोर्ट ने उनके आदेशों से दायर अपीलों को अवैध ठहराया और गुजरात हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा।

कोर्ट ने टिप्पणी की:

“अपीलकर्ता का यह तर्क कि धोखाधड़ी के आरोप सहमति डिक्री को सामान्य डिक्री में बदल देते हैं, स्वीकार नहीं किया जा सकता। धोखाधड़ी, प्राधिकरण की कमी या अन्य दोषपूर्ण तत्व वही बातें हैं जिनकी जांच करने का निर्देश प्रावधान देता है।”

अपीलों को खारिज करते हुए, कोर्ट ने अपीलकर्ता को आदेश 23 नियम 3 सीपीसी के प्रावधान के तहत ट्रायल कोर्ट के समक्ष आवेदन करने की स्वतंत्रता दी, लेकिन स्पष्ट किया कि इस पर कोर्ट ने कोई भी राय व्यक्त नहीं की है।

मुकदमे के खर्चों के संबंध में कोई आदेश पारित नहीं किया गया।

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