भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में ‘डीम्ड सैंक्शन’ की कोई अवधारणा नहीं, वैध मंजूरी बिना अभियोजन अमान्य: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 में अभियोजन के लिए ‘डीम्ड सैंक्शन’ (मानित मंजूरी) का कोई प्रावधान नहीं है। हाईकोर्ट ने एक ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जो ऐसी ही एक मानित मंजूरी की धारणा पर आगे बढ़ रहा था। कोर्ट ने दोहराया कि सक्षम प्राधिकारी द्वारा दी गई वैध मंजूरी के अभाव में, अधिनियम के तहत आपराधिक कार्यवाही दूषित हो जाती है।

यह फैसला हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह ने दिया। उन्होंने विशेष न्यायाधीश (भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम), लखनऊ के 25 जुलाई, 2025 के आदेश को रद्द कर दिया। यह मामला एक सेवानिवृत्त भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी मोहम्मद अब्दुल अलीम खान से संबंधित है, जो आय से अधिक संपत्ति के आरोपों का सामना कर रहे हैं।

मामले में आवेदक की ओर से अधिवक्ता श्री नदीम मुर्तजा, श्री वली नवाज खान, सुश्री सुरुचि त्रिपाठी और श्री ऐश्वर्य प्रताप सिंह ने पक्ष रखा। वहीं, राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त शासकीय अधिवक्ता श्री सुशील पांडे और श्री निर्मल कुमार पांडे ने किया।

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मामले की पृष्ठभूमि

आवेदक मोहम्मद अब्दुल अलीम खान, जो 30 नवंबर, 2009 को सेवा से सेवानिवृत्त हुए थे, के खिलाफ 2015 में यूपी सतर्कता अधिष्ठान द्वारा एक जांच शुरू की गई थी। इसके बाद, 24 अक्टूबर, 2019 को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (पीसी एक्ट) की धारा 13(1)(बी) और 13(2) के तहत एक प्राथमिकी दर्ज की गई।

20 जनवरी, 2023 को उत्तर प्रदेश की राज्यपाल ने उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी। इस मंजूरी को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, जिसने 18 दिसंबर, 2024 के अपने आदेश में राज्य सरकार द्वारा दी गई मंजूरी को “नॉन-एस्ट” (अस्तित्वहीन) पाया। कोर्ट ने कहा कि अखिल भारतीय सेवा संवर्ग के एक अधिकारी के लिए मंजूरी देने का सक्षम प्राधिकारी भारत सरकार है, न कि राज्य सरकार। इसके बाद, 12 मार्च, 2025 को अभियोजन की मंजूरी को औपचारिक रूप से रद्द कर दिया गया।

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मंजूरी रद्द होने के बावजूद, ट्रायल कोर्ट ने 25 जुलाई, 2025 को एक आदेश पारित किया, जिसमें ‘डीम्ड सैंक्शन’ के मामले पर निर्णय लेने के लिए 24 अक्टूबर, 2025 की तारीख तय की गई। इस आदेश से व्यथित होकर, आवेदक ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट का रुख किया।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह की अध्यक्षता वाली पीठ ने कानूनी प्रावधानों और संबंधित केस कानूनों का विस्तृत विश्लेषण किया।

‘डीम्ड सैंक्शन’ का कोई वैधानिक आधार नहीं

कोर्ट ने सबसे पहले पीसी एक्ट की धारा 19 का अवलोकन किया, जो अभियोजन के लिए “पूर्व मंजूरी” को अनिवार्य बनाती है। न्यायमूर्ति सिंह ने कहा, “उपरोक्त पर एक नजर डालने से यह स्पष्ट है कि अभियोजन की मानित मंजूरी के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।”

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सुप्रीम कोर्ट के फैसले की गलत व्याख्या

हाईकोर्ट ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने ‘डीम्ड सैंक्शन’ की अवधारणा पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम डॉ. मनमोहन सिंह मामले में दिए गए फैसले पर गलत तरीके से भरोसा किया था। न्यायमूर्ति सिंह ने स्पष्ट किया कि उस मामले में दिए गए बिंदु बाध्यकारी कानून नहीं थे, बल्कि “संसद द्वारा विचार किए जाने वाले निर्देश/हिदायतें” थीं। इसलिए, उस फैसले के आधार पर ट्रायल कोर्ट के निष्कर्ष “प्रथम दृष्टया गलत” थे।

सुनीति तोतेजा मामले पर भरोसा

हाईकोर्ट ने इसके बजाय सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले सुनीति तोतेजा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (2025) पर भरोसा किया, जिसमें इस मुद्दे पर सीधे तौर पर फैसला दिया गया था। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि उचित मंजूरी न मिलने से आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत ही दूषित हो जाती है।

विधायी मंशा और प्रक्रियात्मक अनिवार्यता

कोर्ट ने स्थापित कानूनी सिद्धांत का आह्वान किया कि “जब कोई कानून किसी काम को एक विशेष तरीके से करने की अपेक्षा करता है, तो उसे उसी तरीके से किया जाना चाहिए, अन्यथा नहीं।” कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि विधायिका ने ‘डीम्ड सैंक्शन’ का कोई प्रावधान बनाने का इरादा नहीं किया था, और अदालतें कानून में अपनी ओर से शब्द नहीं जोड़ सकतीं।

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वकील के खिलाफ टिप्पणी

हाईकोर्ट ने आवेदक का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता के खिलाफ ट्रायल कोर्ट द्वारा की गई प्रतिकूल टिप्पणियों पर भी ध्यान दिया। नीरज गर्ग बनाम सरिता रानी व अन्य मामले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीशों को संयम बरतना चाहिए और वकील के आचरण पर अनावश्यक टिप्पणी करने से बचना चाहिए।

फैसला

आवेदन में योग्यता पाते हुए, हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया और ट्रायल कोर्ट के 25 जुलाई, 2025 के विवादित आदेश को रद्द कर दिया।

कोर्ट ने यह भी स्वतंत्रता दी कि यदि भविष्य में सक्षम सरकार द्वारा कानून के अनुसार अभियोजन की मंजूरी दी जाती है, तो ट्रायल कोर्ट कार्यवाही को फिर से शुरू कर सकता है।

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