सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के एक मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे एक व्यक्ति को बरी कर दिया है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जब मृत्युकालिक कथन (Dying Declaration) स्वयं “संदिग्ध” हो और उसमें कई “महत्वपूर्ण खामियां और कमियां” हों, तो केवल उसके आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने तरुण शर्मा बनाम हरियाणा राज्य मामले में निचली अदालत और पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के फैसलों को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के मामले में, विशेषकर पीड़ित का बयान दर्ज करने की प्रक्रिया में, महत्वपूर्ण चूकों को उजागर किया।
कोर्ट ने इस बात पर भी गंभीर आपत्ति जताई जिस तरह से हाईकोर्ट ने अपील की सुनवाई की थी। कोर्ट ने कहा कि न्याय मित्र (Amicus Curiae) नियुक्त करना और उसी दिन मामले की सुनवाई कर देना “प्रभावी कानूनी प्रतिनिधित्व के अधिकार को एक खोखली औपचारिकता बना देता है और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के सार को ही कमजोर करता है।”
मामले की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष का मामला 31 मार्च, 2012 की एक घटना पर आधारित था, जब मुनीश कुमार और उनके भाई अमित बख्शी (PW-1) को कथित तौर पर रोककर उन पर हमला किया गया था। अभियोजन पक्ष का दावा था कि तरुण शर्मा ने मुनीश कुमार के पेट में चाकू से जानलेवा वार किया। इस मामले में 1 अप्रैल, 2012 को मुनीश कुमार द्वारा दिए गए एक बयान के आधार पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी, जिसे 14 अप्रैल, 2012 को उनकी मृत्यु के बाद मृत्युकालिक कथन मान लिया गया।

अंबाला के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने मुख्य रूप से इसी मृत्युकालिक कथन (प्रदर्श पी-34) पर भरोसा करते हुए तरुण शर्मा को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया। हालांकि, निचली अदालत ने तीन अन्य सह-आरोपियों, संदीप शर्मा, बलविंदर सिंह और दीपक भारद्वाज को बरी कर दिया था। बाद में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने तरुण शर्मा की दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
हाईकोर्ट की प्रक्रिया की आलोचना
मामले के गुण-दोष पर विचार करने से पहले, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर कड़ी नाराजगी व्यक्त की। अपील एक विविध आवेदन के लिए सूचीबद्ध थी, लेकिन हाईकोर्ट ने उसी दिन मुख्य अपील पर सुनवाई करने पर जोर दिया। चूंकि अपीलकर्ता के वकील उपलब्ध नहीं थे, इसलिए अदालत ने एक न्याय मित्र नियुक्त किया और नए वकील को तैयारी के लिए पर्याप्त समय दिए बिना सुनवाई समाप्त कर दी।
सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की, “निष्पक्ष सुनवाई और प्रभावी प्रतिनिधित्व के सिद्धांत हमारे आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रक्रियात्मक नौटंकी नहीं, बल्कि मूलभूत गारंटी हैं, जिनसे कोई समझौता नहीं किया जा सकता।” पीठ ने अनोखीलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में अपने ही फैसले का हवाला देते हुए इस बात पर जोर दिया कि गंभीर आपराधिक मामलों में वकीलों को तैयारी के लिए उचित समय दिया जाना चाहिए।
सबूतों का सुप्रीम कोर्ट द्वारा विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष का पूरा मामला मृत्युकालिक कथन (प्रदर्श पी-34) पर टिका था, जिसे कोर्ट ने कई गंभीर खामियों के कारण अविश्वसनीय माना।
1. पीड़ित के बयान देने की फिटनेस पर संदेह: कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष उस डॉक्टर की पहचान करने या उससे जिरह करने में विफल रहा, जिसने कथित तौर पर फिटनेस प्रमाण पत्र (प्रदर्श पी-33) जारी किया था। कोर्ट ने इसे एक “गंभीर चूक” बताते हुए कहा कि यह “फिटनेस प्रमाण पत्र की प्रामाणिकता पर ही गंभीर संदेह पैदा करता है।” इसके अलावा, सब-इंस्पेक्टर सोमनाथ (PW-17), जिन्होंने बयान दर्ज किया था, ने पीड़ित की मानसिक फिटनेस के बारे में अपनी संतुष्टि दर्ज नहीं की, जो कि एक अनिवार्य आवश्यकता है।
2. पक्षद्रोही (Hostile) गवाह की गवाही को नजरअंदाज करना: मृतक के सगे भाई अमित बख्शी (PW-1), जो एक चश्मदीद गवाह थे, अभियोजन पक्ष द्वारा पक्षद्रोही घोषित कर दिए गए। उन्होंने गवाही दी कि मुनीश “अपनी मृत्यु तक बेहोश रहे” और “बोलने की स्थिति में नहीं थे।” उन्होंने यह भी कहा कि अंधेरे के कारण वे “हमलावरों की पहचान नहीं कर सके।” सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि जिरह में इस गवाही का खंडन नहीं किया जा सका और यह सीधे तौर पर अभियोजन के दावे का विरोध करती है।
3. कथन में विसंगतियां और चूक: कोर्ट ने बयान में कई अन्य मुद्दों को भी उजागर किया। इसमें बयान दर्ज करने का समय नहीं लिखा गया था, जिसे कोर्ट ने एक “गंभीर चूक” कहा। कोर्ट ने यह भी पाया कि इस बयान को अभियोजन पक्ष और निचली अदालत ने भी पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया, क्योंकि इसमें नामित मुख्य हमलावरों में से एक, संजय, पर कभी आरोप पत्र दायर नहीं किया गया और दूसरे, बिट्टू को बरी कर दिया गया।
4. हथियार की महत्वहीन बरामदगी: कोर्ट ने अपीलकर्ता के कहने पर एक चाकू की बरामदगी को “महत्वहीन” माना। कोर्ट ने बताया कि फोरेंसिक रिपोर्ट में हथियार पर किसी भी ब्लड ग्रुप का संकेत नहीं मिला और मृतक के रक्त से मिलान के लिए कोई सीरोलॉजिकल रिपोर्ट भी पेश नहीं की गई।
अंतिम निर्णय
अपने विश्लेषण को समाप्त करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष अपना मामला साबित करने में “पूरी तरह से विफल” रहा है। कोर्ट ने कहा, “इन महत्वपूर्ण खामियों और कमियों का समग्र प्रभाव मृत्युकालिक कथन की सत्यता पर एक गंभीर संदेह पैदा करता है… और इसे अभियोजन पक्ष के मामले को बनाए रखने का एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता।”
परिणामस्वरूप, कोर्ट ने हाईकोर्ट और निचली अदालत के फैसलों को रद्द कर दिया और तरुण शर्मा को सभी आरोपों से बरी कर दिया। उन्हें तत्काल जेल से रिहा करने का आदेश दिया गया है।