सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले वापस लेने के लिए हाईकोर्ट की अनुमति अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सांसद बाल कुमार पटेल उर्फ राज कुमार द्वारा दायर आपराधिक अपीलों को खारिज करते हुए उनके खिलाफ लंबित आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इनकार कर दिया है। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमेकापम कोटेश्वर सिंह की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को सही ठहराया, जिसमें यह व्यवस्था दी गई थी कि किसी भी मौजूदा या पूर्व सांसद (MP) या विधायक (MLA) के खिलाफ अभियोजन (prosecution) वापस लेने के लिए राज्य सरकार को हाईकोर्ट से अनुमति लेना अनिवार्य है।

इस मामले में मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या अपीलकर्ता के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को तब रद्द किया जा सकता है, जब राज्य ने अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार अभियोजन वापस लेने के लिए हाईकोर्ट से मंजूरी नहीं ली थी।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि चूंकि “मौजूदा मामले में यह अनुमति नदारद है,” इसलिए हाईकोर्ट द्वारा सीआरपीसी (CrPC) की धारा 482 के तहत कार्यवाही रद्द करने से इनकार करने के फैसले में “कोई गलती नहीं निकाली जा सकती।” परिणामस्वरूप, अपीलें खारिज कर दी गईं।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 12 जून 2007 को बाल कुमार पटेल के खिलाफ दर्ज एक एफआईआर (FIR) से उत्पन्न हुआ था। उन पर आर्म्स एक्ट, 1959 की धारा 25, 27 और 30 के तहत हथियार लाइसेंस रखने के संबंध में उल्लंघन के आरोप लगाए गए थे।

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तथ्यों के मुताबिक, हालांकि अपीलकर्ता का शस्त्र लाइसेंस शुरू में 2009 में रद्द कर दिया गया था, लेकिन बाद में जिला मजिस्ट्रेट, रायबरेली ने 11 जुलाई 2012 के आदेश द्वारा इसे बहाल कर दिया था। जांच के बाद 25 जुलाई 2007 को चार्जशीट दाखिल की गई और 10 अगस्त 2007 को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, रायबरेली ने मामले का संज्ञान लिया।

वर्षों बाद, उत्तर प्रदेश सरकार ने 6 अगस्त 2014 को एक शासनादेश जारी कर “जनहित और न्याय के हित में” केस क्राइम संख्या 654, 655 और 656 (वर्ष 2007) को वापस लेने का निर्देश दिया। इसके अनुपालन में, लोक अभियोजक (Public Prosecutor) ने 27 अगस्त 2014 को ट्रायल कोर्ट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मामले को वापस लेने के लिए आवेदन दिया।

हालांकि, 8 अक्टूबर 2021 को ट्रायल कोर्ट ने पाया कि राज्य ने अश्विनी कुमार उपाध्याय मामले में निर्धारित कानून के अनुसार हाईकोर्ट की अनुमति नहीं मांगी थी। ट्रायल कोर्ट ने राज्य को अनुमति लेने के लिए 30 दिन का समय दिया और कहा कि ऐसा न करने पर कानून के अनुसार मुकदमा चलाया जाएगा। राज्य अपेक्षित अनुमति लेने में विफल रहा। इसके बाद, अपीलकर्ता ने कार्यवाही को रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसे हाईकोर्ट ने अस्वीकार कर दिया।

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दलीलें और कानूनी विश्लेषण

अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट के फैसलों को इस आधार पर चुनौती दी कि कानून के तहत आवश्यक अनुमति नहीं ली गई थी।

अपने विश्लेषण में, सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन वापस लेने के संबंध में स्थापित कानूनी सिद्धांतों का उल्लेख किया। केरल राज्य बनाम के. अजीत (2021) का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि भले ही धारा 321 सीआरपीसी के तहत केस वापस लेने का निर्णय लोक अभियोजक का होता है, लेकिन “अभियोजन वापस लेने के लिए कोर्ट की सहमति आवश्यक है।” कोर्ट ने जोर देकर कहा कि लोक अभियोजक को एक “स्वतंत्र राय” बनानी चाहिए और कोर्ट को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आवेदन “सद्भावनापूर्ण, सार्वजनिक नीति और न्याय के हित में किया गया है, न कि कानून की प्रक्रिया को विफल करने या दबाने के लिए।”

पीठ ने विशेष रूप से अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत संघ (2021) के निर्देश पर भरोसा किया, जहां तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था:

“इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून को देखते हुए, हम यह निर्देश देना उचित समझते हैं कि किसी भी मौजूदा या पूर्व सांसद/विधायक के खिलाफ अभियोजन को संबंधित हाईकोर्ट की अनुमति के बिना, हमारे दिनांक 16-9-2020 के आदेश के अनुसरण में दर्ज स्वत: संज्ञान रिट याचिकाओं में, वापस नहीं लिया जाएगा।”

कोर्ट ने बिहार राज्य बनाम राम नरेश पांडेय (1957) के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि सहमति देने में कोर्ट का कार्य एक “न्यायिक कार्य” है।

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कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायिक दिमाग (judicial mind) लागू करने का कर्तव्य “हाईकोर्ट पर भी अक्षरशः लागू होता है,” जब वह सांसदों या विधायकों से जुड़े मामलों को वापस लेने की अनुमति पर विचार कर रहा हो।

कोर्ट ने कहा:

“अश्विनी कुमार उपाध्याय (उपरोक्त) के मद्देनजर, लोक अभियोजक द्वारा अभियोजन वापस लेने के कारणों का खुलासा करने वाला यह आवेदन और मामले का रिकॉर्ड हाईकोर्ट के समक्ष होना चाहिए, जो अपना न्यायिक दिमाग लगाएगा और अनुमति देने या न देने का एक तर्कसंगत आदेश पारित करेगा।”

यह देखते हुए कि “मौजूदा मामले में यह अनुमति गायब है,” पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज करके सही किया।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि उन्होंने मामले के गुण-दोष (merits) पर कोई विचार व्यक्त नहीं किया है और अपीलकर्ता डिस्चार्ज या ट्रायल के उचित चरण पर अपनी सभी दलीलें पेश करने के लिए स्वतंत्र है, “चाहे वह डिस्चार्ज हो या ट्रायल।”

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