इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी मामले में संज्ञान लेते समय मजिस्ट्रेट भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 190(1)(b) के तहत पुलिस द्वारा दाखिल चार्जशीट में शामिल न किए गए अपराधों को भी जोड़ या हटा सकते हैं, बशर्ते कि ऐसा निर्णय पुलिस रिपोर्ट में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर लिया गया हो।
यह निर्णय न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल ने निशा कुशवाहा बनाम राज्य उत्तर प्रदेश व अन्य (अनुप्रयोग संख्या 44720/2024, धारा 528, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता – BNSS) में सुनवाई करते हुए सुनाया। याचिकाकर्ता ने झांसी के न्यायिक मजिस्ट्रेट/सिविल जज (जू.व.), FTC (CAW) द्वारा उनकी विरोध याचिका खारिज किए जाने को चुनौती दी थी, जिसमें उन्होंने आईपीसी की धारा 376/511 और 406 के तहत अतिरिक्त आरोपों में संज्ञान लेने की मांग की थी।
मामला क्या था?
16 जनवरी 2024 को झांसी के महिला थाना में दर्ज एफआईआर में याचिकाकर्ता ने आईपीसी की धारा 498-ए, 354, 323, 504, 506 तथा दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3/4 के तहत शिकायत दर्ज कराई थी। पुलिस जांच के बाद पति के खिलाफ सभी धाराओं में और सह-आरोपियों गौरव व मीरा के खिलाफ धारा 498-ए, 323, 504 आईपीसी और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3/4 में चार्जशीट दाखिल की गई।
याचिकाकर्ता ने विरोध याचिका दाखिल कर दावा किया कि उन्होंने प्रयासपूर्वक बलात्कार (धारा 376/511) और स्त्रीधन के गबन (धारा 406) के स्पष्ट आरोप लगाए थे, जिन पर संज्ञान लिया जाना चाहिए था। लेकिन मजिस्ट्रेट ने इन धाराओं में संज्ञान लेने से इनकार कर दिया, जिससे यह याचिका दाखिल की गई।
पक्षकारों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री रोनक चतुर्वेदी ने दलील दी कि मजिस्ट्रेट जांच अधिकारी की राय से बंधा नहीं है और वह पुलिस रिपोर्ट में उपलब्ध सामग्री के आधार पर किसी भी अपराध का संज्ञान ले सकता है। उन्होंने प्रमथनाथ मुखर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, धर्मपाल बनाम हरियाणा राज्य, नाहर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और बलवीर सिंह बनाम राजस्थान राज्य जैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला दिया।
वहीं, राज्य की ओर से अपर शासकीय अधिवक्ता श्री पंकज सक्सेना ने गुजरात राज्य बनाम गिरीश राधाकृष्णन वार्डे के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि मजिस्ट्रेट को केवल चार्जशीट में उल्लिखित धाराओं पर ही संज्ञान लेना चाहिए और अन्य धाराएं जोड़ने या हटाने का अधिकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि धर्मपाल मामला भिन्न तथ्यों पर आधारित था और इस मामले में लागू नहीं होता।
न्यायालय की विवेचना
न्यायमूर्ति देशवाल ने माना कि इस विषय पर विभिन्न निर्णय मौजूद हैं, लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट किया कि बड़े या पहले के पीठों के निर्णयों को वरीयता दी जाती है। न्यायालय ने कहा:
“पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद मजिस्ट्रेट धारा 190(1)(b) CrPC के तहत यह अधिकार रखता है कि वह पुलिस रिपोर्ट में उपलब्ध सामग्री के आधार पर किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध किसी भी अपराध का संज्ञान ले सकता है, चाहे जांच अधिकारी की राय कुछ भी हो।”
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट के पास निम्नलिखित अधिकार हैं:
- पुलिस रिपोर्ट में नामित नहीं किए गए व्यक्ति को तलब करना,
- चार्जशीट में उल्लिखित नहीं की गई धाराओं में भी संज्ञान लेना,
- यदि कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता, तो किसी धारा में संज्ञान लेने से इनकार करना।
न्यायालय ने धर्मपाल, प्रमथनाथ मुखर्जी, नाहर सिंह, और फखरुद्दीन अहमद जैसे मामलों को उद्धृत किया, जिनमें मजिस्ट्रेट को स्वतंत्र रूप से यह आकलन करने का अधिकार मान्यता दी गई है कि कोई विशेष अपराध बनता है या नहीं।
निर्णय
इन सिद्धांतों को वर्तमान मामले में लागू करते हुए कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा आईपीसी की धारा 376/511 और 406 में संज्ञान न लेने में कोई गैरकानूनीता नहीं है। कोर्ट ने पाया कि:
- शिकायतकर्ता द्वारा दिये गए धारा 164 CrPC के बयान में प्रयासपूर्वक बलात्कार के आरोप का कोई सीसीटीवी फुटेज समर्थन नहीं करता,
- उनके बयानों में धारा 406 के तहत प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता।
इस प्रकार, याचिका खारिज कर दी गई।
न्यायालयीन उद्धरण: निशा कुशवाहा बनाम राज्य उत्तर प्रदेश व अन्य, धारा 528 BNSS के अंतर्गत आवेदन संख्या 44720/2024, न्यूट्रल साइटेशन नंबर: 2025:AHC:59428