मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक हालिया आदेश में, निचली अदालत के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसने कानूनी प्रतिनिधियों (LRs) को रिकॉर्ड पर लाने के आवेदनों को प्रक्रियात्मक आधार पर खारिज कर दिया था।
जबलपुर पीठ में सुनवाई करते हुए, न्यायमूर्ति दीपक खोट ने माना कि निचली अदालत का आदेश “कानूनन गलत” (bad in law) था, क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के “विपरीत” (dehors the principle) पारित किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में एक उदार और न्याय-उन्मुख दृष्टिकोण अपनाने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने मामले को नए सिरे से फैसले के लिए वापस निचली अदालत को भेज दिया है।
यह कानूनी मुद्दा एक निचली अदालत द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 22 नियम 4 के तहत दायर आवेदनों को खारिज करने पर केंद्रित था। हाईकोर्ट (2025:MPHC-JBP:52949) ने इस सिद्धांत को पुष्ट किया कि एक प्रतिस्थापन (substitution) के आवेदन में, उपशमन (abatement) को रद्द करने की प्रार्थना निहित होती है, भले ही इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो।
मामले की पृष्ठभूमि
हाईकोर्ट कीर्ति जैन और अन्य द्वारा दायर विविध याचिका (Misc. Petition) संख्या 5302/2025 पर सुनवाई कर रहा था। याचिकाकर्ता, द्वितीय सिविल जज, जूनियर डिवीजन, उचेहरा, जिला सतना द्वारा सिविल सूट संख्या 17/2019 में पारित 7.8.2025 के आदेश से व्यथित थे।
उक्त आदेश द्वारा, निचली अदालत ने दो आवेदनों, I.A.No.2/2025 और I.A.No.3/2025 को खारिज कर दिया था। ये आवेदन याचिकाकर्ताओं (मुकदमे में वादी) द्वारा क्रमशः प्रतिवादी संख्या 1 और प्रतिवादी संख्या 16 के कानूनी उत्तराधिकारियों को रिकॉर्ड पर लाने के लिए दायर किए गए थे।
याचिकाकर्ता के तर्क
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश अधिवक्ता श्री अखिलेश कु जैन ने दलील दी कि प्रतिवादी संख्या 1 के वारिसों को प्रतिस्थापित करने का आवेदन “पूरी तरह से समय पर” था। यह तर्क दिया गया कि निचली अदालत ने आवेदन को केवल इस आधार पर खारिज कर दिया कि मृतक प्रतिवादी का मृत्यु प्रमाण पत्र और परिवार वृक्ष (family tree) दाखिल नहीं किया गया था।
अधिवक्ता ने तर्क दिया कि यह एक त्रुटि थी, क्योंकि कथित तौर पर आदेश-पत्र (order-sheets) से पता चलता है कि “वादी/याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तावित कानूनी उत्तराधिकारियों के संबंध में कोई विवाद नहीं था।” ऐसे किसी विवाद के अभाव में, आवेदन को “स्वीकार किया जाना चाहिए था।”
प्रतिवादी संख्या 16 के वारिसों के आवेदन के संबंध में, अधिवक्ता ने प्रस्तुत किया कि इसे “अगली सुनवाई पर दायर किया गया था,” जैसे ही अदालत के समक्ष वकील द्वारा प्रतिवादी संख्या 16 की मृत्यु के संबंध में जानकारी दी गई थी। यह तर्क दिया गया कि यह आवेदन “सद्भावनापूर्ण (bona fide) था और जानकारी/ज्ञान की तारीख को देखते हुए इसे स्वीकार किया जाना चाहिए था।”
याचिकाकर्ता के वकील ने ओम प्रकाश गुप्ता उर्फ लल्लूवा (अब मृतक) और अन्य बनाम सतीश चंद्र (अब मृतक) (AIR 2025 SC 1201) के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया। इसका हवाला देते हुए, यह तर्क दिया गया कि भले ही आदेश 22 नियम 9 सीपीसी और परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत आवेदन दायर नहीं किए गए थे, फिर भी उपशमन को रद्द करने की प्रार्थना को “न्याय के हित में प्रतिस्थापन के लिए प्रार्थना में निहित” पढ़ा जा सकता है। वकील ने जोर दिया कि ऐसी प्रार्थनाओं पर “उदारतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।”
अदालत का विश्लेषण और निर्णय
न्यायमूर्ति दीपक खोट ने गौर किया कि निचली अदालत के समक्ष आवेदनों का “विरोध नहीं किया गया था” और वारिसों को प्रतिस्थापित करने की शक्ति “अदालत में निहित है।”
हाईकोर्ट ने कहा कि निचली अदालत को “माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रोशनी में आवेदन पर विचार करना चाहिए था।”
फैसले में सुप्रीम कोर्ट के मिथाईलाल दलसंगर सिंह बनाम अन्नाबाई देवराम किनी ((2003) 10 SCC 691) के निर्णय को उद्धृत किया गया, जिसे ओम प्रकाश गुप्ता मामले में दोहराया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने माना था:
“8. …कानूनी प्रतिनिधियों को रिकॉर्ड पर लाने के लिए एक साधारण प्रार्थना, जिसमें उपशमन को रद्द करने के लिए विशेष रूप से प्रार्थना नहीं की गई है, को संक्षेप में उपशमन को रद्द करने की प्रार्थना के रूप में माना जा सकता है… ऐसे मामलों में बहुत तकनीकी या पांडित्यपूर्ण दृष्टिकोण (technical or pedantic approach) की आवश्यकता नहीं है।”
सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि अदालतों को “एक न्याय-उन्मुख दृष्टिकोण अपनाना होगा” और एक वादी को “मेरिट के आधार पर एक मुकदमे का निर्धारण करने के अवसर से वंचित नहीं किया जाना चाहिए” जब तक कि वह “घोर लापरवाही, जानबूझकर निष्क्रियता या कदाचार के समान किसी कृत्य” का दोषी न हो।
यह पाते हुए कि निचली अदालत का आदेश इन स्थापित सिद्धांतों के विपरीत था, हाईकोर्ट ने माना:
“इस अदालत की सुविचारित राय में, दिनांक 7.8.2025 का आक्षेपित आदेश… कानूनन गलत (bad in law) है और इसे एतद्द्वारा रद्द किया जाता है।”
हाईकोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर लिया और इसे एक निर्देश के साथ निपटा दिया, तथा मामले को वापस द्वितीय सिविल जज, जूनियर डिवीजन, उचेहरा को भेज दिया। निचली अदालत को “ओम प्रकाश गुप्ता (सुप्रा) मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून पर विचार करते हुए, आवेदन पर नए सिरे से उसके अपने गुण-दोषों के आधार पर निर्णय लेने” का निर्देश दिया गया है।




