नीलामी बिक्री में मिलीभगत की बू: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने प्रक्रिया में गड़बड़ी पर ज़मीन की नीलामी रद्द की

किसानों के अधिकारों की रक्षा करते हुए छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में 9.4 हेक्टेयर कृषि भूमि की नीलामी को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि “पूरी नीलामी प्रक्रिया, नीलामी की पुष्टि तक, निजी खरीदारों और बैंक अधिकारियों के बीच मिलीभगत की बू देती है।”

मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रविंद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने यह निर्णय 23 जनवरी 2025 को सुनाया। यह फैसला सिमगा, ज़िला रायपुर के 68 वर्षीय कृषक अनुप कुमार शुक्ला द्वारा दायर रिट अपील (WA No. 895/2024) पर सुनाया गया।

मामले की पृष्ठभूमि

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अनुप कुमार शुक्ला ने वर्ष 2000 में एक ट्रैक्टर खरीदने के लिए सिमगा की ज़िला सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक से ₹3.25 लाख का कृषि ऋण लिया था। इसके बदले में उन्होंने अपनी पूरी 9.4 हेक्टेयर सिंचित ज़मीन बंधक रखी थी।

आर्थिक संकट के चलते वे ऋण चुकाने में असफल रहे। बिना उचित नोटिस और कानूनी प्रक्रिया का पालन किए, बैंक ने 27 जून 2005 को दो निजी व्यक्तियों—संपत लाल और कमलकांत—को ₹8.31 लाख में पूरी भूमि नीलाम कर दी।

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शुक्ला का कहना था कि उन्हें नीलामी का नोटिस 25 जुलाई 2005 को मिला—यानि बिक्री के बाद। उन्होंने तत्काल राशि चुकाने का समय मांगा और आपत्ति दर्ज की, लेकिन संयुक्त पंजीयक, सहकारी समितियाँ ने 18 नवंबर 2005 को उनकी बातों की अनदेखी कर नीलामी की पुष्टि कर दी।

कानूनी मुद्दे

  • क्या नीलामी के दौरान छत्तीसगढ़ सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक नियम, 2008 का पालन किया गया?
  • क्या छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता, 1959 की धारा 165(3) का उल्लंघन हुआ?
  • क्या नीलामी खरीदारों और बैंक अधिकारियों के बीच मिलीभगत थी?
  • क्या शुक्ला को बकाया चुकाने का समुचित अवसर दिया गया?
  • क्या बैंक नियमों के अध्याय 4 और 5 के अंतर्गत विलंब व अनुपातिक बिक्री की प्रक्रिया का पालन हुआ?

दलीलें और पक्षकारों की प्रस्तुति

अपीलकर्ता अनुप शुक्ला की ओर से अधिवक्ता बी.पी. शर्मा और एम.एल. सकत ने दलील दी कि नीलामी से पहले कोई वैध नोटिस नहीं दिया गया, न मुनादी की गई, और ₹20–25 लाख मूल्य की ज़मीन मात्र ₹8.31 लाख में बेची गई। उन्होंने यह भी कहा कि नियम 19 के अनुसार, केवल उतनी भूमि बेची जानी चाहिए थी जिससे ऋण वसूली हो सके।

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बैंक की ओर से अधिवक्ता मानस बाजपेयी, नीलामी खरीदारों की ओर से अधिवक्ता मनोज परांजपे और प्रांजल अग्रवाल तथा राज्य की ओर से शासकीय अधिवक्ता संघर्ष पांडे पेश हुए। उनका तर्क था कि सभी वैधानिक प्रक्रियाएं अपनाई गईं और याचिकाकर्ता ने पाँच वर्षों तक एक भी किस्त नहीं चुकाई।

कोर्ट के मुख्य अवलोकन

कोर्ट ने पाया कि नीलामी प्रक्रिया में गंभीर खामियाँ थीं और कहा:

“पूरी नीलामी प्रक्रिया में निजी खरीदारों और बैंक अधिकारियों के बीच मिलीभगत की बू आती है।”

कोर्ट ने PHR Invent Education Society बनाम यूको बैंक (2024) के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि नीलामी की पुष्टि केवल धोखाधड़ी या मिलीभगत के मामलों में रद्द की जा सकती है—जो कि इस मामले में मौजूद है।

कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की:

“बंधक रखी गई पूरी भूमि को केवल ऋण राशि से थोड़े अधिक में बेचना, जबकि पहले ट्रैक्टर या आंशिक भूमि से वसूली की कोशिश नहीं की गई, नियम 19 का स्पष्ट उल्लंघन है।”

साथ ही, धारा 165(3) का हवाला देते हुए कहा गया कि बंधक की गई संपत्ति पर ब्याज केवल मूलधन के 50% तक सीमित होना चाहिए, जबकि इस मामले में वसूली दोगुनी से भी अधिक हो गई।

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अंतिम निर्णय

रिट अपील स्वीकार की गई।
एकल न्यायाधीश का 25.10.2024 का आदेश (WP No. 1326/2006) रद्द किया गया।
18.11.2005 की नीलामी की पुष्टि और 25.11.2005 का बिक्री प्रमाण पत्र रद्द कर दिया गया।
कोर्ट ने निर्देश दिया कि शुक्ला, अंतरिम आदेश के तहत पहले से जमा ₹4.15 लाख समायोजित करने के बाद, शेष ऋण एक महीने के भीतर जमा करें।

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